Thursday, April 2, 2015

खारा पानी



सालों पहले

फागुन के महीने में

सुगन्धित फूलों से

प्यार के मनभावन

रंग बनाने के लिये

जो शीतल, निर्मल, मधुर जल

तुम मेरे मन की देग में भर कर

धीमी-धीमी आँच पर रख गये थे

वह जाने कब, क्यों और कैसे

आँसुओं के खारे पानी में

तब्दील हो कर कसैला हो गया

मैं नहीं जानती !

बस इतना याद है कि

उस खारे पानी को 

सुखाने के लिये मैंने

लगातार वर्षों हर रोज़

ज़िंदगी की कड़ी धूप में

उसे पहरों के लिये

बड़े जतन से रखा था,

और रात-रात भर

अंतर की धधकती ज्वाला पर 

खौला-खौला कर 

आँसुओं के उस सागर को

मैंने इतना सुखा डाला था

कि देग में पानी की  

ज़रा सी भी नमी

नहीं बची थी !

बची थी तो सिर्फ

देग में चारों तरफ चिपकी हुई  

खुश्क आँसुओं की

ज़िद्दी सी मोटी पर्त

जिसे मैं अपने सपनों,

अपनी हसरतों और

अपनी चाहतों के जूने से

खरोंच-खरोंच कर बिल्कुल

छुड़ा देना चाहती थी !

क्योंकि मैं भी पल भर के लिये  

दिल से मुस्कुराना चाहती थी !  

लेकिन एक बार फिर

उदासी के खारे आँसुओं में

तब्दील हो जाने के लिये  

मेरे मन के उस देग में

फिर से तुमने

कुछ सुगन्धित फूल

और ढेर सारा पानी भर दिया  

बगैर यह सोचे कि

ज़िंदगी की इस शाम में

ना तो मेरे अंतर में

वैसी धधकती आग बाकी है  

और ना ही संध्या की इस बेला में

वक्त की धूप में

वह प्रचण्ड ताप बचा है

जो उदासी के इस

अतल सिंधु को सुखा सके

जिसका खारापन

इस बार पहले से

दोगुना बढ़ चुका है !



साधना वैद  







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