Friday, April 22, 2016

शब्दों का पैरहन





तुम्हारे शब्दों का पैरहन

अब मेरे ख्यालों के जिस्म पर

फिट नहीं आता !

उसके घेर पर टँके

मेरे सुकुमार सपनों के सुनहरे सितारे

बेरहम वक्त की मार से

धूमिल हो जाने के बाद

कब के उखड़ चुके हैं !

किनारी पर लगी मेरी

कोमल भावनाओं की

निर्मल चाँदनी सी

रुपहली किरण जगह-जगह से

कट फट चुकी है !

मेरी अपेक्षाओं और अरमानों के

बहुत सारे रंग बिरंगे काँच

जो तुमसे उपहार में मिले

इस पैरहन पर

बड़ी खूबसूरती से

जगह-जगह पर जड़े थे

चटक कर गिर गये हैं !

गले, बाहों और कमर पर टँकी

तुम्हारे प्रेम की नर्म

रेशमी झालर में

इतने सूराख हो गये थे

कि मैंने उसे खुद ही

उखाड़ फेंका है !  

तुम्हारे शब्दों के इस लिबास से

हर बार कतर ब्योंत कर

घिसा फटा जर्जर हो चुका

काफी हिस्सा काट छाँट कर मैं

निकाल देती हूँ और

तुम्हारे वादों की सुई में

विश्वास का नया धागा डाल

उसे फिर से मरम्मत कर

सी लेती हूँ !

लिबास हर बार      

छोटा होता जाता है,

तानों उलाहनों के

पैने नश्तरों में उलझ कर

फट गये हिस्सों को 

मैं बार बार उधेड़ कर

सहिष्णुता के पैबंद लगा

बार बार सिल लेती हूँ !

जानते हो क्यों ?

क्योंकि तुम्हारा दिया हुआ

मेरे पास एक यही

अनमोल तोहफा है जिसे मैं

जी जान से अपने

कलेजे से चिपटाए 

रखना चाहती हूँ !  

लेकिन इस उधेड़बुन में

मेरे सपनों का फलक हर बार

छोटा होता जाता है

भावनाओं का ज्वार

मद्धम होता जाता है !

अपेक्षाओं और ज़रूरतों की सूची

सिमट कर छोटी होती जाती है !

बस बारहा एक यही कोशिश

बाकी रह जाती है कि  

उपहार में तुमसे मिले

इस पैरहन का एक रूमाल तो

कम से कम अपनी मुट्ठी में

मैं पकड़े रह सकूँ !

जीने के लिये

कोई तो भुलावा

ज़रूरी होता ही है ना !

बोलो,

तुम क्या कहते हो ?



साधना वैद



No comments:

Post a Comment