गीत संगीत की बातें
हों और मन हिरन सा कुलाँचे भरता हुआ बचपन की वादियों में ना पहुँच जाए यह तो हो ही
नहीं सकता ! हमारा बचपन ! बेहद प्यारा और न्यारा बचपन ! वह बचपन जब आसमान के
सितारों को गाने सुनाने की होड़ में सुर कभी तार सप्तक से नीचे उतरते ही नहीं थे और
सुबह की पहली किरण के साथ गीत संगीत के संग जो तारतम्य जुड़ता था वह रात को निढाल
हो नींद के आगोश में लुढ़कने के बाद ही टूटता था !
टी वी, ट्रांजिस्टर
या वॉकमैन का ज़माना नहीं था वह ! संगीत का आनंद लेने के लिये या तो रेडियो हुआ
करते थे या ग्रामोफोन ! ग्रामोफोन में गीत वही सुने जा सकते थे जिनके रिकॉर्ड्स घर
में उपलब्ध होते थे ! हम भाई बहनों की आयु को देखते हुए मम्मी चुन-चुन कर जिन
गीतों के रिकार्ड्स ले आती थीं वे कुछ दिन तो बड़े शौक से सुने जाते थे और बाद में
अलमारी की शोभा बढ़ाते रहते थे ! ( उन दिनों स्कूलों में मोरल साइंस अलग से जो नहीं
पढ़ाई जाती थी ) ! “आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिन्दुस्तान की”, “हम लाये हैं
तूफ़ान से कश्ती निकाल के”, “मुन्ना बड़ा प्यारा”, “चूँ चूँ करती आई चिड़िया”, “हम
पंछी एक डाल के”, “ वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया” वगैरह-वगैरह ! लिहाज़ा
सारी निर्भरता रेडियो पर ही हुआ करती थी जो घर के बीच वाले हॉल में रखा रहता था ! हॉल
के बिल्कुल पास बाबूजी का कमरा था ! बाबूजी नियम से रात को आठ बजे खाना खा लेते थे
और ठीक पौने नौ बजे उनके कमरे की लाईट बुझ जाती थी ! उसके बाद घर में ज़रा सी भी
आवाज़ ना करने की सख्त ताकीद थी सभी को ! क्योंकि रात में कभी भी, एक, दो, तीन बजे, जब
भी उनकी नींद खुलती वे कोर्ट में चल रहे मुकदमों का गहन अध्ययन कर परम शान्ति के
आलम में एकाग्र चित्त हो अपने फैसले लिखा करते थे ! इसलिए उनकी आरंभिक नींद में
खलल ना पड़े इसका मम्मी विशेष ध्यान रखती थीं ! आजकल तो सबको टी वी के शोर में ही सो
लेने की खूब आदत पड़ चुकी है ! बाबूजी का कमरा बंद होते ही रेडियो के पास वाली
कुर्सी पर हमारा कब्ज़ा हो जाता ! और फिर धीमी आवाज़ में सीलोन, विविध भारती, ऑल
इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस और जहाँ कहीं से भी हमारी पसंद के खूबसूरत गीतों का
प्रसारण हो रहा होता हमारे कान और हाथ रेडियो से ही चिपके रहते ! आवाज़ बढ़ाने पर
खतरा होता कि बाबूजी जाग जायेंगे तो डाँट तो पड़ेगी ही, सोने के लिये पैक कर सीधे
बिस्तर पर पहुँचा दिया जाएगा ! क्लास टेस्ट का बहाना भी रोज़ नहीं चल सकता था ! उन
दिनों स्कूलों में आये दिन टेस्ट लेने की परम्परा जो नहीं थी ! तिमाही, छ:माही और वार्षिक
परीक्षाएं ही होती थीं और उनका समय भी निश्चित हुआ करता था !
रेडियो के ऊपर हरी
ज़िल्द की एक मोटी सी कॉपी रखी रहती थी जिसमें हम अपनी पसंद के गाने रेडियो से सुन
कर उतारा करते थे ! अब तो कम्प्यूटर पर सब कुछ उपलब्ध है बस सर्च में डाल भर दो, पल
भर में हर गीत के बोल सहित सारा इतिहास सामने हाज़िर ! पहले भी सिनेमा हॉल के बाहर
फ़िल्मी गानों की किताबें एक दो आने में मिल जाया करती थीं ! लेकिन ज़रूरी नहीं जिस गीत
के बोल हमें चाहिए हों उसी फिल्म की गाने की किताब भी मिल जाए ! हमारी पसंद भी तो बड़ी
क्लासिक हुआ करती थी ! फिर धीमी-धीमी आवाज़ में गाने को सुन कर जल्दी-जल्दी हाथ चला
गीत को लिखने में जो मज़ा आता था वह सामने एक क्लिक में गीत का सारा इतिहास देख कर भी
अब कहाँ आता है !
पहले एक और बड़े मज़े
की बात होती थी ! कुछ प्रोग्राम्स में गीतों के प्रसारण का समय लगभग तय होता था !
रेडियो सीलोन के प्रोग्राम सुबह सात बजे से आरम्भ होते थे ! सात से सवा सात तक
वाद्य संगीत, फिर सवा सात से साढ़े सात तक एक ही फिल्म के गीत, साढ़े सात से आठ बजे
तक पुरानी फिल्मों के गीत, जिसका समापन के एल सहगल के गीत से होता था और फिर आठ
बजे से ‘आपकी पसंद के गीत’ में नये गीतों का फरमाइशी कार्यक्रम आया करता था ! इस
प्रोग्राम में ‘दिल एक मंदिर है’ फिल्म का टाइटिल गीत ठीक आठ बज कर बीस मिनट पर
प्रसारित होता था ! इसी तरह हर प्रोग्राम के गीत और उनका प्रसारण समय लगभग हमें
याद हो गये थे ! रेडियो ऑन कर, अपनी कॉपी और पेन हाथ में संभाल हम तैयार हो बैठ
जाते कि जैसे ही हमारी पसंद का गीत आये हम उसे फौरन लिख लें ! अक्सर जल्दी-जल्दी
में कुछ शब्द छूट जाते या मुश्किल उर्दू होने की वजह से समझ में नहीं आते तो वह
स्थान रिक्त छोड़ दिया जाता कि अगली बार जब आएगा तो उसे पूरा कर लेंगे ! कॉपी में
स्लिप लगा दी जाती कि अचानक गीत बज उठे तो ढूँढने में दिक्कत न हो ! अगले दिन सहेलियों
से भी खूब चर्चा होती ! सबकी पसंद एक सी जो हुआ करती थी ! या यूँ कहिये कि
सहेलियाँ बनाई ही वही जाती थीं जो हमपसंद होती थीं !
“तूने सुना था कल
तामीले इरशाद में तलत महमूद का गाना आया था ? वो उसके पहले स्टैंज़ा की दूसरी लाइन
में क्या शब्द है समझ नहीं आया ! अबकी आये तो ज़रा ध्यान से सुन लेना और नोट कर
लेना !” कभी तो सहेलियों से समाधान मिल जाता कभी नहीं मिल पाता ! हमारी कॉपी के हर
पेज में रिक्त स्थानों की लंबी सूची होती और नये गीतों के साथ नयी-नयी स्लिपें भी
बढ़ती जातीं ! जिस दिन गीत पूरा हो जाता मन सारे दिन मगन रहता ! कॉपी से एक स्लिप
हट जाती और फिर मन लगा कर उस गाने की रिहर्सल होती क्योंकि जब लिरिक्स पूरे पता
हों तभी तो सुनाया जा सकेगा ! कॉपी साफ़ सुथरी बनी रहे इसलिए पहले रफ कागज़ पर
घसीटामार हैन्ड राइटिंग में गाना रेडियो से लिखा जाता फिर साफ़ सुथरी राइटिंग में वह
गीत कॉपी में उतारा जाता ! वह कॉपी हमें अपनी जान से भी ज़्यादह प्यारी थी ! दिन भर
जितना हम उसके पन्ने उलटते पलटते उतना तो कोर्स की कॉपी किताबों के भी नहीं पलटे
होंगे !
हमारी वह कॉपी हमारी सहेलियों में भी बहुत मशहूर हो गयी थी ! आज के ज़माने
की गूगल सर्च का लाभ जो मिल जाता था उन्हें ! किसीको कोई भी गाना चाहिए बस हमें
याद किया जाता, “साधना की कॉपी में ज़रूर होगा साधना से पूछो !” इतने साल बीत चुके
हैं एकदम सही संख्या तो अब याद नहीं फिर भी उस कॉपी में कम से कम छह सात सौ गाने
तो ज़रूर होंगे ! हर अवसर के गीत उसमें मिल जाते ! गीत, गज़ल, नज़्म, भजन, कवितायें, क्लासिकल,
सेमी क्लासिकल, फ़िल्मी, गैर फ़िल्मी हर किस्म की अनमोल कृतियों का खज़ाना थी हमारी
कॉपी ! अक्सर रात को हम उसे अपने साथ तकिये के नीचे रख कर सोते थे !
कितने खूबसूरत दिन
थे वो ! गीत संगीत की मधुर स्वर लहरी से गूँजती वह दुनिया और अपने पसंदीदा गीतों
से भरी वह कॉपी हमें आज भी बहुत याद आती है ! चार साल उस शहर में रहने के बाद जब बाबूजी
का ट्रांसफर हुआ और हमें अपनी प्रिय सहेलियों से बिछड़ कर दूसरे शहर जाना पड़ा तब
अपनी सबसे प्रिय सहेली को वह कॉपी हमने बतौर यादगार भेंट कर दी ! चिट्ठी पत्री में
अक्सर उस कॉपी का ज़िक्र भी हो जाया करता ! अब वह कॉपी कहाँ है, है भी या नहीं है,
नहीं मालूम, लेकिन उसके पन्नों पर लिखी गानों की लाइनें आज भी अक्सर हमारे मन
मस्तिष्क में कौंध जाती हैं और अधरों पर एक मीठी सी मुस्कराहट खिल जाती है !
साधना वैद
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