अब बस भी कर
ऐ ज़िंदगी !
और कितने इम्तहान
देने होंगे मुझे ?
मेरे सब्र का बाँध
अब टूट चला है !
मुट्ठी में बँधे
सुख के चंद शीतल पल
न जाने कब फिसल कर
हथेलियों को रीता कर
गए
पता ही नहीं चला !
बस एक नमी सी
ही
बाकी रह गयी है जो
इस बात का अहसास
करा जाती है कि भले
ही
क्षणिक हो लेकिन कभी
कहीं कुछ ऐसा भी था
जीवन में जो मधुर था,
शीतल था, मनभावन था
!
वरना अब तो चहुँ ओर
मेरे सुकुमार सपनों
और
परवान चढ़ते अरमानों
की
प्रचंड चिता की भीषण
आग है,
अंगारे हैं, चिंगारियाँ हैं
और है एक
कभी खत्म न होने
वाली
जलन, असह्य पीड़ा और
एक अकल्पनीय घुटन
जो हर ओर धुआँ भर
जाने से
मेरी साँसों को घोंट
रही है
और जिससे निजात पाना
अब किसी भी हाल में
मुमकिन नहीं !
साधना वैद
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