भोर का
तारा
छिपा
बही जैसे ही
नूर की
धारा
बहे धरा
पे
पिघल
पर्वत से
चाँदी
की धारा
उद्गम स्थल
आलोकित हो जाता
रवि आभा से
छिटकी धूप
समूचे पर्वत पे
सूर्य प्रभा से
तपता
सूर्य
बना दे
नदिया को
सोने की
धारा
किनारे खड़े
हरे भरे
से पेड़
पन्ने सी
धारा
नीलम
धारा
हुआ
प्रतिबिंबित
नीला
आकाश
बहती
धारा
बहाती
कल मल
निर्विकार
हो
बहता
जाए
नदिया
की धारा में
मेरी भी
मन
शीतल
धारा
तृषित
तन मन
जीवनदायी
निर्मल
धारा
कण-कण
प्लावित
धरा
प्रसन्न
जीवन
धारा
बहती
प्रति पल
धीमी
गति से
प्रचंड
धारा
समस्त
जन धन
बहा ले
गयी
कुपित
धारा
मानव का
अज्ञान
आया
सैलाब
न छेड़ो तुम
प्रकृति
का नियम
पछताओगे
साधना
वैद
No comments:
Post a Comment