अर्थ
शास्त्र का सिद्धांत है कि यदि किसी वस्तु का उत्पादन माँग से अधिक होने लगता है
तो उसकी कीमत गिर जाती है और उत्पादक को हानि होने लगती है ! अधिक उत्पादन की मार का
असर अनेक वस्तुओं पर समय-समय पर दिखाई देता रहता है ! कभी गन्ने की फसल खेत में ही
इसीलिए जला दी जाती है कि खेत में उनकी कटाई तक का मूल्य बिक्री करने पर नहीं निकल
पाता है ! कभी प्याज़ लहसन की कीमत इतनी गिर जाती है कि किसान उन्हें सड़क पर फेंक
देना ही उचित समझते हैं ! आगरा के क्षेत्र में आलू के किसान इस वर्ष इसी समस्या को
झेल रहे हैं ! आइये आलू की इस दुर्दशा का कुछ अध्ययन करें !
कई वर्ष
पहले देश की आलू की पैदावार आवश्यकता से कम थी ! आलू उत्पादकों को लागत का पाँच से
सात गुना तक मूल्य मिल रहा था ! आगरा का आलू गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार
आदि प्रान्तों में हाथों हाथ बिक रहा था ! रातों रात सब किसान जो पहले सरसों, बाजरा,
दलहन और गेहूँ की खेती करते थे आलू उत्पादक बन गए ! पूँजीपतियों ने भी इस क्षेत्र
में कोल्ड स्टोरेज की कतार लगा दी और लाभ की बहती गंगा में हाथ धोने लगे जो
स्वाभाविक भी है पर जिन राज्यों में आगरे का आलू मँहगा बिक रहा था वहाँ के किसान
भी आखिर कुछ तो सोच विचार करते ही हैं ! उन्होंने भी अपने क्षेत्रों में प्रयोग के
लिए आलू उगाये और आज स्थिति यह है कि आज से लगभग १७५ वर्ष पूर्व जो आलू के बीज अंग्रेजों
द्वारा बाहर से लाकर ठन्डे पहाड़ी क्षेत्र में बोये गए और यह मान लिया गया कि यही
ठंडा क्षेत्र इस की फसल के लिए उपयुक्त है उसके नए बीजों के कमाल से और भारतीय
किसानों की अथक मेहनत से आलू अब पंजाब से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर
कन्याकुमारी तक हर तरह की जलवायु और मिट्टी में बोया जा रहा है और उसकी भरपूर फसल
भी मिल रही है ! खुशी की बात है ना ? लेकिन वास्तव में यह बात खुशी की नहीं वरन
दुःख की है क्योंकि अधिक उत्पादन की वजह से आलू की फसल की कीमत लगातार घट रही है
और किसान बड़े घाटे में जा रहा है !
आखिर
गेहूँ की उपज करने वाला किसान गेहूँ को छोड़ आलू के उत्पादन में क्यों लग गया ?
कारण वही है गेहूँ का आवश्यकता से कहीं अधिक उत्पादन ! जो लोग ट्रेन या सड़क मार्ग
से उत्तरी भारत की यात्रा करते रहते हैं उन्होंने खुले आसमान के नीचे मात्र जर्जर त्रिपाल
से ढके जगह-जगह खेतों में पड़े हुए गेहूँ के बोरों के पहाड़ अवश्य देखे होंगे ! यह
वह समय था जब सरकार समर्थन मूल्य पर किसानों का सारा गेहूँ खरीद लेती थी जो उस
वक्त की स्थिति के अनुरूप किसान के लिए बहुत सुविधाजनक था ! किसान आलू दलहन और
तिलहन को छोड़ तब गेहूँ उत्पादन में लग गए ! अधिक उत्पादन से खुले बाज़ार में गेहूँ
की कीमत गिरने लगी लेकिन सरकारी समर्थन मूल्य के सहारे किसान का काम चलता रहा और
अनावश्यक गेहूँ खुले में जमा होता रहा, फिर सड़ता रहा और फेंका जाता रहा ! पर सरकार
के पास तो टैक्स का पैसा होता है वह घाटा झेलती रही पर समर्थन मूल्य भी घटाती रही !
आज गेहूँ का समर्थन मूल्य बाज़ार भाव से भी कम हो चुका है इसलिए सरकारी खरीद ना के
बराबर हो चुकी है और पंजाब जैसे गेहूँ के क्षेत्र वाले किसान भी अब चावल और आलू की
तरफ उन्मुख हो चुके हैं ! पर इस आपाधापी में पहले दलहन का क्षेत्र कम हुआ और दालों
की कीमत आसमान पर जा पहुँची ! अब जाकर किसानों ने जब दलहन का उत्पादन बढ़ाया और
आयात का भी सहारा मिला तब दालों की कीमत में कुछ कमी आई है ! आज स्थिति यह है कि
हमारा गेहूँ का, चावल का, आलू का उत्पादन देश की आवश्यकता से कहीं ज्यादह है !
हम इस
वास्तविकता को मानने को अभी तैयार नहीं हैं कि हमारे देश की कुल कृषि योग्य भूमि
और उस पर काम करने वाली मानव शक्ति ( मैन पावर ) उस उत्पादन में लगी है जिसकी पूरी
खपत अपने देश में नहीं है ! चावल और गेहूँ भारत को मजबूरी में लागत से कम कीमत पर
निर्यात करना पड़ रहा है ! कुछ लोग कहेंगे कि सरकार इस अतिरिक्त उत्पाद को अति
निर्धन लोगों को मुफ्त में क्यों नहीं बाँट देती ! बाँटने के लिए जितने साधन चाहिए
उनकी देश में भारी कमी है !
ऐसे ईमानदार
अधिकारी और नेता जो सही पात्र को पहचान सकें और इस सहायता को अपात्रों तक पहुँचने
से रोक सकें !
जागरूक
और इमानदार मीडिया जो अति निर्धन लोगों को इस सुविधा की सूचना दे सके और उनको इस
पाइप लाइन के उस सिरे तक पहुँचा सके जहाँ यह मुफ्त बँट रहा हो !
ऐसा ईमानदार
और प्रभावी पुलिस बल जो उन पाइप लाइनों की चोरी और लूटमारी से रक्षा कर सके जिनके
माध्यम से यह सुविधा प्रदान की जा रही है !
ज़रा
सोचिये क्या यह संभव है और इसकी लागत क्या आयेगी ? इसको चोरों और जमाखोरों से कैसे
बचाया जाएगा जो पहले से ही इन धंधों के कारण मालामाल हो रहे हैं अर्थात फ्री में
बाँटना न तो संभव है ना ही इस समस्या का पूरा हल है ! फिर फ्री बाँटने से तो बाज़ार
की कीमतें और गिरेंगी और हमारा ‘अन्नदाता’ किसान और मुसीबत में आ जाएगा !
इस
समस्या के हल के लिए सबसे पहले हमको अपनी इस सोच को बदलना पड़ेगा कि भारत में खेती
करना ही सबसे उत्तम व्यवसाय है और ग़रीब सा दिखने वाला एवं अनेक साधनों से वंचित यह
‘अन्नदाता’ किसान देश की शान है जो बहादुर सिपाहियों की तरह सीमा पर गोली न खाते
हुए भी अपनी जान कभी बीमारी से, कभी भुखमरी से और कभी चरम हताशा के कारण आत्महत्या
करके दे देता है ! उसे बताया जाता है कि यह धरती तुम्हारी माँ है और यदि तुम इससे
दूर हो गए तो आने वाली तुम्हारी पीढ़ियाँ भूमिहीन हो जायेंगी और फिर उनका कोई
भविष्य नहीं रहेगा ! लगे रहो इसी भूमि पर ! बने रहो ग़रीब ! मरते हो तो मरते रहो पर
तुम्हारा व्यवसाय तो गौरवशाली है ! लोग तो तुम्हें ‘अन्नदाता’ मानते हैं ! तुम
ज़मींदार हो ! ज़रा कल्पना कीजिये फटे हाल क़र्ज़ में डूबे, हताशा के मारे इन ‘अन्नदाता
ज़मीदारों’ की कैसी अद्भुत वंशावली चली आ रही है जो मुंशी प्रेमचंद के ज़माने से अभी
तक उसी हाल में जीने के लिए मजबूर हैं !
पश्चिम
बंगाल में जब वामपंथी सरकार थी तब उनके एक समझदार मुख्यमंत्री ने इस समस्या को
समझा और किसानों को अधिक चावल के उत्पादन से रोकने के लिए उन्हें अपनी कुछ ज़मीन को
बड़े उद्योगों के लिए बेच कर अपनी ग़रीबी दूर करने और जीवन यापन के नए तरीके अपनाने
के लिए मनाया ! लेकिन मने मनाये किसानों को जब यह बताया गया कि ऐसे तो तुम ‘अन्नदाता
ज़मींदार’ से कारखाने के मजदूर बन जाओगे तो वे भड़क उठे और एक बहुत बड़े उद्योगपति को
अपना कारखाना लगाने के लिए बंगाल को छोड़ गुजरात जाना पड़ा !
आज वही
किसान अपनी ग़रीबी लिए और समझाने वालों के द्वारा पहनाये गए सूखे हार पहने हुए सोच
में डूबा खड़ा है कि मेरे लिए क्या ठीक था और क्या ग़लत ! खैर आइये फिर आलू की फसल
पर आते हैं !
ज़रुरत
से ज्यादह आलू उत्पादन के क्षेत्र में कमी करनी होगी !
अदल बदल
कर कभी तिलहन कभी दलहन और कभी गेहूँ और कभी आलू की खेती करनी होगी जिसके लिए
उन्हें उचित समय पर बाज़ार की सही जानकारी उपलब्ध करानी होगी !
यह पुराने
अनुभवी सभी किसान जानते हैं कि बदल-बदल कर अलग फसल बोने से भूमि की उर्वराशक्ति तो
बढ़ती ही है खाद आदि के खर्च में भी कमी आती है !
किसानों
की कुछ भूमि को ऐसे उद्योग में लगाने के लिए उपयोग में लाना होगा जिससे उस क्षेत्र
के लोगों को रोज़गार मिल सके !
आज का
किसान विशेष रूप से आलू बोने वाला किसान अपने खेत पर केवल पार्ट टाइम कर्मचारी बन
कर काम करता है ! अपने खाली समय को वह दो तरह से खर्च करता है ! समझदार लोग तो आस
पास के शहरों के कारखानों में काम कर अपनी आमदनी बढ़ा लेते हैं लेकिन नादान किसान
शराब, जूए और व्यर्थ के झगड़ों और मुकदमेबाजी में समय खपा देते हैं ! यह समझ में आ
जाना चाहिए कि आवश्यकता से अधिक उत्पादन दुखदायी ही होता है ! ज़रा सोच कर देखिये
क्या यही स्थिति इन दिनों आई टी क्षेत्र के एक्सपर्ट्स की नहीं हो रही है ? क्या
अधिक उत्पादन की मार वे नहीं झेल रहे हैं ! यह भी एक विचारणीय विषय है लेकिन इसकी चर्चा
फिर कभी सही !
साधना
वैद
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