Friday, October 12, 2018

असमंजस

तुम तो मेरे नयनों के हर आँसू में समाये हो
जिन्हें मैं पलकों के कपाटों के पीछे
बड़े जतन से छिपा कर रखती हूँ
कि कहीं तुम उन आँसुओं की धार के साथ
बह कर बाहर ना चले जाओ !
तुम तो मेरे हृदय से निसृत
हर आह में बसते हो जिसे मैं
दांतों तले अपने अधरों को कस कर
दबा कर बाहर निकलने से रोक लेती हूँ
कि कहीं तुम भी उस आह के साथ
हवा में विलीन ना हो जाओ !
तुम तो अंगूठे से लिपटे आँचल की
हर सिलवट में छिपे हो
जिसे मैं कस कर मुठ्ठी में भींच लेती हूँ
कि कही तुम इस नेह्बंध से
मुक्त होकर अन्यत्र ना चले जाओ !
तुम तो मेरी डायरी में लिखी
नज़्म के हर लफ्ज़ में निहित हो
जिसे मैं बार-बार सिर्फ इसीलिये
पढ़ लेती हूँ कि जितनी बार भी
मैं उसे पढूँ
उतनी बार तुम्हें देख सकूँ !
तुम तो मेरे अंतस में
एक दिव्य उजास की तरह विस्तीर्ण हो
मेरे मन को आलोकित करते हो
और उस प्रकाश के दर्पण में ही
मैं अपने अस्तित्व को पहचान पाती हूँ !
लेकिन कैसी उलझन है यह !
मैं जहाँ हूँ
वह जगह मुझे साफ़
दिखाई क्यों नहीं देती !
मुझे पहचान में क्यों नहीं आती !
एक गहन वेदना
एक घनीभूत पीड़ा
और एक अंतहीन असमंजस के
दोराहे पर मैं खुद को पाती हूँ
जहाँ से आगे बढ़ने के लिये हर राह
बंद नज़र आती है !


चित्र - गूगल से साभार 
साधना वैद

No comments:

Post a Comment