दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती
झटक कर दामन खुशी रुखसत हुई
मोतियों की थी हमें चाहत बड़ी
आँसुओं की बाढ़ में बरकत हुई !
रंजो ग़म का था वो सौदागर बड़ा
भर के हाथों दे रहा जो पास था
हमने भी फैला के आँचल भर लिया
बरजने को कोई ना हरकत हुई !
बाँटने में वो बड़ा फैयाज़ था
नेमतों से कब हमें एतराज़ था
दर्द देने के बहाने ही सही
चल के घर आने की तो फुर्सत हुई !
हमको उसकी बेरुखी का पास था
चोट देने का ग़ज़ब अंदाज़ था
जायज़ा लेना था हाले दर्द का
ज़ख्म देने को नये शिरकत हुई !
हम न उससे फेर कर मुँह जायेंगे
हर सितम उसका उठाते जायेंगे
हो न वो मायूस अपनी चाल में
इसलिए बस दर्द से उल्फत हुई !
साधना वैद