आओ चलो आज फिर भटकते हैं
उन्हीं वादियों में, उसी रहगुज़र पे
खड़े हैं जहाँ सैकड़ों दरख़्त पलाश के
सड़क के किनारे बिलकुल सतर सीधे
लाल लाल फूलों से लदे
गर्व से अपना सिर उठाये
आसमान से बातें करते
अपने नव कुसुमित सुर्ख फूलों से
बालारुण का अभिषेक सा करते !
चलो आज फिर करते हैं चहलकदमी
उन्हीं रास्तों पर जहाँ पलाश की शाखों ने
बड़े ही प्यार से बिछा दी हैं
नर्म नर्म अनगिनत सुर्ख पाँखुरियाँ
हमारे कदमों के नीचे बचाने के लिए
हमें राह में बिखरे काँटों और कंकड़ों से
आओ कि आज फिर से मेहरबान है मौसम
कि आज फिर से मेहरबान है कुदरत
कि आज फिर से खुशगवार है फ़िज़ा
कि आज फिर से पुकारा है हमें पलाश ने
गले में पहनाने को सुर्ख फूलों की जय माल
कि आज एक बार फिर पीछे मुड़ कर
जाते हुए मधुमास ने पुकारा है हमें
पलाश के इन सिंदूरी फूलों से
मन की वीणा के तारों को झंकृत कर
प्रेम का मधुर गीत गुनगुनाने के लिए !
आ जाओ एक दूजे के स्वर में स्वर मिला कर
प्रकृति के इस आह्वान का हम मान रख लें
आ जाओ एक दूजे के नयनों में अनुराग के
इन सुर्ख फूलों का प्रतिबिम्ब देख
मधुमास की मनुहार का हम ध्यान रख लें !
साधना वैद
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Deleteपलाश और आपकी अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteदोनो ही अतिसुंदर । कहीं कोई अतिरेक नहीं । एक समागम है जहाँ पलाश है और हम हैं ।
बहुत-बहुत बधाई आदरणीया ।
हार्दिक धन्यवाद पुरुषोत्तम जी ! आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार !
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
६ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! हृदय से आपका बहुत बहुत आभार ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteअति उत्तम वर्णन ,बधाई हो आपको साधना जी नमस्कार
ReplyDeleteसुर्ख पलाश जैसी सुंदर रचना । बहुत कमाल । साधुवाद आपको
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अजय जी ! आभार आपका !
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