किस्सा कहा जो दर्द का वो सह न पायेंगे,
हर इक बयाँ पे रोये बिना रह न पायेंगे !
हर रंग है जफा का मेरी दास्ताँ में दोस्त,
इलज़ाम खुद पे एक भी वो सह न पायेंगे !
सदियों से जिन किलों में मेरी रूह कैद है,
छोटे से एक छेद से वो ढह न पायेंगे !
फौलाद में तब्दील जिन्हें वक्त कर चुका,
आँसू हमारी आँख से वो बह न पायेंगे !
बर्दाश्त हैं ज़ुल्म-ओ-सितम दुनिया के सब हमें,
इक अश्क उनकी आँख में हम सह न पायेंगे!
हर लफ्ज़ है रूदाद मेरे दर्द की ए दोस्त,
ना पूछिये कुछ और हम कुछ कह न पायेंगे !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-02-2021) को "बज उठी वीणा मधुर" (चर्चा अंक-3980) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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बसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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दर्द की इन्तहां । खूबसूरत ग़ज़ल ।
ReplyDeleteअरे वाह ! आपको यहाँ देख कर ऐसा लग रहा है ब्लॉग वाले दिन लौट आये ! हार्दिक धन्यवाद संगीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteमन तो करता है लौटने का ,लेकिन ब्लॉग पर सबकी उदासीनता उदास कर देती है .
Deleteहम तो उदासीन नहीं संगीता जी ! हमारे ब्लॉग पर सदैव आपका हृदय से स्वागत है ! एक एक कर कड़ी जुड़ती है ! धीरे धीरे यह श्रंखला भी बढ़ती जायेगी !
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteना पूछिये कुछ और हम कुछ कह न पायेंगे !
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत रचना
अरे वाह संध्या जी ! हार्दिक धन्यवाद एवं आभार ! ब्लॉग पर आपको देख कर बहुत उल्लसित हूँ ! लग रहा है ब्लॉग वाले दिन धीरे धीरे लौट रहे हैं !
Deleteबहुत लाजवाब ... दर्द की एक दास्ताँ कहती हुयी गज़ल ...
ReplyDeleteअरे वाह नासवा जी ! आपका ब्लॉग पर आना बहुत अच्छा लगा ! हार्दिक धन्यवाद एवं बहुत बहुत आभार आपका ! स्वागत है !
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