खड़ी हुई हूँ एक
पैर पर
संतुलन बनाए !
जानते हो क्यों
?
सच करने के लिए
अपने सारे सपने
!
एक हाथ से थाम
रखा है
मैंने अपने उस
बेकाबू पैर को
जो धरा का
स्पर्श पाते ही
अधीर हो जाता
है
उसकी गोलाई को
नापने के लिए,
और दूसरी हथेली
पर
मैंने सम्हाली
हुई है
सारी दुनिया,
सारी नियति,
सारी कायनात !
आसान नहीं है
इस तरह
एक पैर पर खड़े
रहना थोड़ी देर भी !
लेकिन मैं सुबह
से ही इस मुद्रा में
खडी हुई हूँ
!
अब सच होने को
उतावले हो रहे
हैं मेरे सपने
और मेरा मन उत्कंठित
है
अपनी जीत की उस
तहरीर को
पढ़ने के लिए
जिसे मैंने
अद्भुत धैर्य, लगन और समर्पण से
लिख डाला है
समय के भाल पर
और मेरी झोली
भर गयी है
प्रोत्साहन, प्रशंसा और पुरस्कारों से !
मैं गर्वित हूँ,
मैं पुलकित हूँ,
मैं सच में
बहुत हर्षित हूँ !
मैं आज की नारी
हूँ !
साधना वैद
सही कहा
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Deleteवाह वाह, बढ़िया रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विवेक जी ! आभार आपका !
Deleteहार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद रूपा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteउम्दा रचना ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद दीपक जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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