Wednesday, October 1, 2008

आह्वान

युग बदले, मान्यताएं बदलीं,

मूल्य बदले, परिभाषायें बदलीं,

नियम बदले, आस्थायें बदलीं।

नहीं बदली तो केवल आतंक, अन्याय और अत्याचार की हवा,

दमन और शोषण की प्रवृत्ति,

लोगों की ग़रीबी और भुखमरी,

बेज़ारी और बदहाली,

रोटी और मकान की समस्या,

इज़्ज़त और आत्म सम्मान के सवाल !

समय ने करवट ली है।

इतिहास के दृश्य पटल पर तस्वीरें बदली हैं।

छ: दशक पहले वाले दृश्य अब बदल गये हैं।

एक लंगोटी धारी, निहत्थे, निशस्त्र, आत्मजयी नेता के नेतृत्व के दिन अब लद गये हैं।

वह महान् कृशकाय नेता 

जिसने अहिंसा का सूत्र थाम

तोप बन्दूकधारी विदेशी शासकों के हाथों से

देश को स्वतंत्रता कि सौगात दिलवाई थी,

अब नही रहा।

अहिंसा और मानवता की बातें आज के सन्दर्भों में बेमानी हो गयी हैं।

आज अपने ही देश में 

अपने ही चुने हुए शासकों के सीनों पर

अपनी मांगों की पूर्ती के लिये

देश की संतानें बन्दूकों की नोक ताने हुए हैं।

आज बन्दूकें शासक के हाथों में नहीं याचक के हाथों में हैं।

गौतम और महवीर, गांधी और नेहरू के देश में

हिंसा और अराजकता का ऐसा प्रचन्ड ताण्डव देख

आत्मा कराहती है।

कल्पनाओं के कुसुम मुरझा गये हैं,

आंसुओं के आवेग से दृष्टि धुंधला गयी है,

कण्ठ में शब्द घुट से गये हैं,

लेखनी कुण्ठित हो गयी है,

पक्षाघात के रोगी की तरह बाहें

पंगु हो उठने से लाचार हो गयी हैं।

वरना आज मैं तुमसे यह तो अवश्य पूछती

मेरे बच्चों,

क्या तुमने कभी सोचा है अपनी संतानों के लिये

विरासत में तुम क्या छोड़े जा रहे हो?

तुम्हारी उंगलियां जो बन्दूकों के ट्रिगर दबाने में इतनी सिद्धहस्त हो चुकी हैं

कभी उनसे उन बेवा माँ बहनों के आँसू भी पोंछे होते

जिनके सुहाग तुमने उजाड़े हैं।

मशीनगन उठाने के अभ्यस्त इन हाथों से

कभी खेतों में हल भी चलाये होते

तो मानव रक्त से सिंचित ये उजड़े बंजर खेत फसलों का सोना उगलते

और भूख से बिलखते उन तमाम मासूम बच्चों के पेट भरते

जिनके पिता, भाई, चाचा तुम्हारी गोलियों का शिकार हो

उन अभागों को उनके हाल पर छोड़ 

चिरनिद्रा में सो गये हैं।

क़्या तुम्हें नहीं लगता इन अनाथ, बेसहारा, निराश्रित बच्चों के

अन्धकारमय भविष्य के उत्तरदायी तुम हो?

कभी सोचा है तुम्हारी अपनी ही संतानें 

तुमसे क्रूरता, नृशंसता और हिंसा की यही इबारत सीख 

तुम्हारे ही कारनामों से प्रेरित हो

कभी तुम्हारे ही सीनों की ओर 

अपनी बन्दूकों का रुख कर देंगी?

तब तुम उन्हें कोई सफाई नहीं दे पाओगे,

चाह कर भी अपने कलुषित अतीत के धब्बों को नहीं धो पाओगे,

अपने गुनाहों का कोई प्रायश्चित नहीं कर पाओगे

और अपनी उस घुटन, उस तड़प को बर्दाश्त भी नहीं कर पाओगे।

इसीलिये कहती हूं मेरे दुलारों,

अपनी इस पवित्र पुण्य मातृभूमि को इस तरह अपवित्र तो ना करो।

इसकी माटी को चन्दन की तरह 

अपने भाल पर लगा इसका मान बढ़ाओ,

इसे यूं बेगुनाहों के खून से लथपथ कर 

इसका अनादर तो मत करो।

कैसी विडम्बना है

इस उर्वरा पावन धरा पर

जहां सोना उगलते खेत और महकती केसर की क्यारियां होनी चाहिये थीं

आज वहां हर तरफ 

सफेद कबूतरों की लाशें बिखरी पड़ी हैं!

 
साधना वैद 

7 comments:

  1. I have seen three recently written poems by Sadhana Vaid. They are beautiful pieces of wonderful literary work. It seems that a philospher poet is taking birth in Sadhana Vaid. All the three poems narrate the present poor situation of young generation and speaks silently about their pethatic situation in India.The poem refferring Gandhijee is unique specially on the birthday of Mahatma Gandhi. Ifind a lot literary and articulate ideas in these poems.Let Sadhana continue attempting such work and I amconfident that in time to come, she will convert to be a philospher poet, social revolutionary and a sumbol of down trodden.
    I wish her a very great poet.
    SBSaxena

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  2. कल 13/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. इसीलिये कहती हूं मेरे दुलारों,
    अपनी इस पवित्र पुण्य मातृभूमि को इस तरह अपवित्र तो ना करो।
    इसकी माटी को चन्दन की तरह
    अपने भाल पर लगा इसका मान बढ़ाओ,

    बहुत ही सुन्दर और पवित्र आह्वान है आपका.
    युवा शक्ति को योग्य हो अपना और देश का
    उत्थान करने के लिए निरंतर साधना करनी होगी.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा,साधना जी.

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  4. साधना जी आपका काव्य किसी कमेन्ट से बहुत ऊपर है निशब्द हूँ। बधाई।

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  5. निर्मला दीदी ने मेरे मुँह की बात छीन ली। शब्दों से जादू करती हैं आप।

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  6. आदरणीय निर्मला कपिला जी एवं नवीन भाई से सहमत.. सचमुच! अद्भुत रचना...
    सादर....

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