Wednesday, May 13, 2009

विश्वासघात या अवसरवाद

चुनाव चक्र अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच रहा है और अब एक नये दुष्चक्र के आरम्भ का सूत्रपात होने जा रहा है । मंत्रीमंडल में अपनी कुर्सी सुरक्षित करने के लिये सांसदों की खरीद फरोख्त और जोड़ तोड़ का लम्बा सिलसिला शुरु होगा और आम जनता ठगी सी निरुपाय यह सब देख कर अपना सिर धुनती रहेगी । व्यक्तिगत स्तर पर चुनाव लड़ने वाले निर्दलीय प्रत्याशियों और छोटी मोटी क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं का वर्चस्व रहेगा । उनकी सबसे मँहगी बोली लगेगी और सत्ता लोलुप और सिद्धांतविहीन राजनीति करने वाले आयाराम गयारामों की पौ बारह होगी |
नेताओं के प्रति विश्वास और सम्मान आम आदमी के मन से इस तरह धुल पुँछ गया है कि गिने चुने अपवादों को छोड़ दिया जाये तो किसी भी नेता के नाम पर मतदाता को मतदान केंद्रों तक खींच कर लाना असम्भव है । आज भी मतदाता पार्टी के नाम पर अपना वोट देता है और पार्टी के घोषणा पत्र पर भरोसा करता है । लेकिन यही सिद्धांतविहीन नेता चुनाव जीतने के बाद आम जनता के विश्वास का गला घोंट कर और पार्टी विशेष की सारी नीतियों के प्रति अपनी निष्ठाओं की बलि चढ़ा कर कुर्सी के पीछे पीछे सम्मोहित से हर इतर किस्म के समझौते करते दिखाई देते हैं तो आम जनता की वितृष्णा की कोई सीमा नहीं रहती । मतदान के प्रति लोगों की उदासीनता का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि लोगों के मन में निराशा ने इस तरह से जड़ें जमा ली हैं कि किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव का आश्वासन उन्हें आकर्षित और उद्वेलित नहीं कर पाता । तुलसीदास की पंक्तियाँ आज के राजनैतिक परिदृश्य में उन्हें अधिक सटीक लगती है-
कोई नृप होहि हमहुँ का हानि
चेरी छोड़ि ना होवहिं रानी ।।
जनता की इस निस्पृहता को कैसे दूर किया जाये , उनके टूटे मनोबल को कैसे सम्हाला जाये और नेताओं की दिन दिन गिरती साख को कैसे सुधारा जायें ये आज के युग के ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनके उत्तर शायद आज किसी युधिष्ठिर के पास नहीं हैं ।
इन समस्याओं को विराम देने के लिये एक विकल्प जो समझ में आता है वह यह है कि देश में सिर्फ दो ही पार्टीज़ होनी चाहिये । अन्य सभी छोटी मोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का इन्हीं दो पार्टियों में विलय हो जाना चाहिये । जो पार्टी चुनाव में बहुमत से जीते वह सरकार का गठन करे और दूसरी पार्टी एक ज़िम्मेदार और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाये । इस कदम से सांसदों की खरीद फरोख्त पर रोक लगेगी और अवसरवादी नेताओं की दाल नहीं गल पायेगी । इसके अलावा संविधान में इस बात का प्रावधान होना चाहिये कि चुनाव के बाद प्रत्याशी पार्टी ना बदल सके और जिस पार्टी के झंडे तले उसने चुनाव जीता है उस पार्टी के प्रति अगले चुनाव तक वह् निष्ठावान रहे । यदि किसी तरह का मतभेद पैदा होता है तो भी वह पार्टी में रह कर ही उसे दूर करने की कोशिश करे । पार्टी छोड़ने का विकल्प उसके पास होना ही नहीं चाहिये । तभी नेताओं की निष्ठा के प्रति लोगों में कुछ विश्वास पैदा हो सकेगा और पार्टीज़ की कार्यकुशलता के बारे में लोग आश्वस्त हो सकेंगे । इस तरह के उपाय करने से जनता स्वयम को छला हुआ महसूस नहीं करेगी और राजनेताओं और राजनीति का जो पतन और ह्रास इन दिनों हुआ है उसे और गर्त में जाने से रोका जा सकेगा और उसकी मरणासन्न साख को पुनर्जीवित किया जा सकेगा ।

साधना वैद

1 comment:

  1. साधनादीदी,

    आप की चिन्ता पूरी राजनीति को लेकर बिलकुल उचित है, बल्कि यों कहे तो ज्यादा उचित होगा कि लोकतंत्र की सांसे इसी स्वस्थ भावना पर टिकी है । आपके भाव पुरे लोकतन्त्र की बुनियाद का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते है , होना भी चाहिये क्योंकि प्रभात की लालिमा सबसे पहले पर्वत-शिखरों पर दिखाई देती है ।

    स्थिती में सुधार के लिये आपके उपाय मनन करने योग्य है.., और यदि किसी भी प्रकार से [साम-दाम-दंड़-भेद करके भी]नारी जागरण किया जाकर , सभी स्थानो पर 40-50% आरक्षण इस पुरुष-प्रधान समाज से छीन लिया जाये तो आधी से ज्यादा समस्याओं का अन्त तो अपने आप ही हो जायेगा । किन्तु नारी जागरण अपने आप चल कर नही आयेगा , उसके लिये नारी को चिरपुरातन-रुढियों को तोड़ने-मरोड़ने की कीमत तो चुकानी ही होगी ।

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