Saturday, December 19, 2009

हाय तुम्हारी यही कहानी ( अंतिम भाग )

( गतांक से आगे )
नीरा का मन अपने माता-पिता की उदारता पर अभिमान से भर उठा । अगले दिन की सुबह उसे और दिनों की अपेक्षा अधिक उजली लगी थी । छ: मास की दौड़ धूप और विज्ञापनों के अध्ययन के बाद माँ बाबूजी ने विश्वास में सौम्या के लिये उपयुक्त वर की सम्भावनायें तलाशने की कोशिश की थी । उसकी पहली पत्नी का स्वर्गवास प्रसव के समय हो गया था । छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के पास रहता था और घर में माता-पिता के अलावा एक छोटा भाई और था । सौम्या के विरोध के बावजूद भी माँ बाबूजी ने कलेजे पर पत्थर रख कर सौम्या का कन्यादान कर दिया इस आशा में कि वे उसके लिए अत्यंत सुन्दर, सुखद एवं मधुर दाम्पत्य जीवन के प्रवेश द्वार की कुण्डी खोल रहे हैं । लेकिन उनके सत्प्रयासों और निष्काम प्रत्याशाओं की परिणति ऐसी होगी यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा । विधि का यह कैसा विद्रूप था । नीरा का मन सुलग रहा था ।
सौम्या चाय लेकर आ गयी थी । “ भाभी तुमने झूठ क्यों लिखा था चिट्ठियों में ?”
नीरा का स्वर रुँधा हुआ था । सौम्या अब तक संयत हो चुकी थी । “ सच कैसे लिखती नीरा । माँ बाबूजी ने जिस आस और विश्वास के सहारे मुझे इन लोगों को सौंपा था वह तुम्हारे भैया की चिता की नींव पर बना था । उस विश्वास को कैसे तोड़ देती ! इस घर में माँ जी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी कि मैं यहाँ आऊँ । वे मुझे मनहूस समझती हैं, अच्छा व्यवहार तो उनका पहले भी नहीं था पर जबसे विमल का एक्सीडेंट हुआ है वे मुझे फूटी आँख देखना नहीं चाहतीं । “ ”और विश्वास भैया ? क्या वो भी आपका साथ नहीं देते ? आपका पक्ष नहीं लेते ?” नीरा का स्वर चिंतित था ।
“ पहले तो वो तटस्थ रहते थे लेकिन अब उनका भी रुख बदल गया है । बात-बात पर बिगड़ जाते हैं । घर में इतना तनाव रहता है कि वो भी हर समय खीजे से रहते हैं । सच तो यह है नीरा कि हमारा यह रिश्ता एक समझौता भर है । शायद हम दोनों ही ना तो एक दूसरे को स्वीकार कर पा रहे हैं और ना ही इस थोपे गये रिश्ते से बाहर निकलने का कोई मार्ग ढूँढ पा रहे हैं । मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा नीरा कि मैं क्या करूँ । मेरी तो यही इच्छा थी कि तुम लोगों के स्नेह और सहानुभूति का सम्बल लेकर अपना सारा जीवन माँ बाबूजी की सेवा में वहीं समर्पित कर देती । तुम्हारे भैया ने भी चलते समय मुझसे यही वचन लिया था कि मैं उनके जाने के बाद माँ बाबूजी और तुम लोगों का जी जान से ध्यान रखूँगी । ‘ सौम्या फिर रो पड़ी थी शायद सुनील को याद करके । इस बार नीरा की आँखें भी बह चली थीं ।
“ फिर यह सब उल्टा-पुल्टा कैसे हो गया भाभी ? आपने माँ बाबूजी का विरोध क्यों नहीं किया ? “ “ कैसे करती नीरा ? किस अधिकार से अपना बोझ जीवन भर के लिये उनके बूढ़े कन्धों पर डाल देती । मेरे साथ दुर्भाग्य की जो आँधी उनके जीवन में भी आयी थी वह अगर मेरे बाहर निकल जाने से थम सकती थी तो अच्छा ही था ना । यही सोच कर मैंने इस निष्कासन को उनकी मुक्ति का उपाय मान कर स्वीकार कर लिया । “ नीरा सौम्या की गोद में मुँह छिपा कर बिलख पड़ी, “ माँ बाबूजी को तो पता भी नहीं है भाभी कि आप पर यहाँ क्या बीत रही है । “
” नीरा तुम्हें मेरी सौगन्ध है माँ बाबूजी से कुछ नहीं कहना । अगर उन्हें यह भ्रम बना रहे कि मैं यहाँ बहुत खुश हूँ और अगर इस तरह उनके दुख का सौवाँ हिस्सा भी कम हो रहा है तो इस निष्कासन में भी मेरे जीवन की कुछ तो सार्थकता है । मैं इसी में स्वयम को धन्य समझूँगी कि उनका थोड़ा दुख तो मैं बाँट सकी । “
” नहीं भाभी झूठ का सहारा लेकर उन्हें भ्रम में रखना उचित नहीं है । मैं उनसे कुछ भी छिपा नहीं पाउँगी । “ सौम्या ने नीरा का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया था, “नहीं नीरा मुझे वचन दो कि तुम माँ बाबूजी को कुछ भी नहीं बताओगी । तुम इस तरह मेरी तपस्या को भंग नहीं करोगी । ”
नीरा के मन पर मानो मन भर की शिला आ पड़ी थी । प्यालों में चाय ठंडी हो चुकी थी । आँखों में आँसू और भावोद्रेक का ज्वार थम गया था । नीरा के मन में घनघोर तूफान करवटें ले रहा था । सौम्या को इस तरह आत्मघात करने से वह कैसे रोके । उसे कुछ तो करना होगा जिससे नारी की इस रूढ़िवादी कहानी का अंत बदल जाये । उसके इस अबला स्वरूप की तस्वीर का रुख बदल जाये । सौम्या को किसी भी तरह से इस नर्क से निकालना होगा यह संकल्प उसकी चेतना पर हथौड़े की तरह अनवरत चोट कर रहा था ।
सौम्या ने धीरे से नीरा की बाँह पकड़ कर उसे हिलाया, “ नीरा मैं तो इन लोगों से अपमान सह कर पत्थर बन चुकी हूँ लेकिन तुम्हारा अपमान मैं नहीं सह पाउँगी । अब तुम जाओ नीरा और फिर दोबारा यहाँ कभी मत आना । मैं यही सोच कर संतोष कर लेती हूँ कि मैं जीते जी इस चिता में जल कर तुम्हारे भैया के प्रति अपना पत्नी धर्म निभा रही हूँ । “
“ हाँ भाभी जाना तो होगा लेकिन अकेले नहीं । “ नीरा ने कस कर सौम्या की कलाई पकड़ ली थी । उसके चेहरे पर दृढ़ निश्चय और वाणी में असाधारण ओज था । “ आप भी मेरे साथ चल रही हैं अभी और इसी वक़्त । आपको इस दशा में छोड़ कर अगर आज मैं चली गयी तो जीवन भर अपने आप से आँखें नहीं मिला पाउँगी । मैं जानती हूँ माँ बाबूजी भी मेरे इस फैसले से न केवल खुश होंगे बल्कि मुझ पर बहुत गर्व करेंगे । चलिये मेरे साथ । ज़रूरी काग़ज़ात उन्हें मथुरा से भेज दिये जायेंगे । “ और सौम्या को विरोध का कोई भी अवसर दिये बिना नीरा उसकी कलाई थाम सधे कदमों से घर के बाहर निकल गयी थी ।
समाप्त
साधना वैद

9 comments:

  1. अंतिम भाग का और विस्तार होता तो बात अगधिक स्पष्ट हो सकती थी। बिल्कुल सही फैसला किया नीरा ने।

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  2. बहुत मार्मिक कहानी रही बहुधा लडकियों को समाज और माँ बाप के दुख के कारण चुपचाप ही सब कुछ सहन करना पडता है मगर नीरा ने बहुत अच्छा कदम उठाया। आखिर कब तक नारी ये सब सहेगी? धन्यवाद

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  3. kahaani ki baan`gi bahhut hi achhee bn padee hai...
    mn ke hausle aur sankalp ka naam nira hi to hai .

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  4. Kahani ek chalat chitr kee tarah aankhon ke saamne se guzar gayi...bahut sundar lekhan shailee hai aapki!

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  5. A heart touching story ,touching social problem .Nicely woven
    theme in the story .
    Asha

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  6. बहुत खूब अच्छी रचना
    बधाई स्वीकारें

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  7. बहुत खूब अच्छी रचना
    बधाई स्वीकारें

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