Tuesday, May 11, 2010

कितनी बार...

कितनी बार...
कितनी बार तुम मुझे अहसास कराते रहोगे
कि मेरी अहमियत तुम्हारे घर में,
तुम्हारे जीवन में
मात्र एक मेज़ या कुर्सी की ही है
जिसे ज़रूरत के अनुसार
कभी तुम बैठक में,
कभी रसोई में तो कभी
अपने निजी कमरे में
इस्तेमाल करने के लिए
सजा देते हो
और इस्तेमाल के बाद
यह भी भूल जाते हो कि
वह छाया में पड़ी है या धूप में !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि मैं तुम्हारे जीवन में
एक अनुत्पादक इकाई हूँ
इसलिए मुझे कैसी भी
छोटी या बड़ी इच्छा पालने का
या कैसा भी अहम या साधारण
फैसला लेने का
कोई हक नहीं है
ये सारे सर्वाधिकार केवल
तुम्हारे लिए सुरक्षित हैं
क्योंकि घर में धन कमा कर
तो तुम ही लाते हो !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि हमारे साझे जीवन में
मेरी हिस्सेदारी सिर्फ सर झुका कर
उन दायित्वों को ओढ़ने
और निभाने की है
जो मेरे चाहे अनचाहे
तुमने मुझ पर थोपे हैं,
और तुम्हारी हिस्सेदारी
सिर्फ ऐसे दायित्वों की सूची को
नित नया विस्तार देने की है
जिनके निर्वहन में
तुम्हारी भागीदारी शून्य होती है
केवल इसलिए
क्योंकि तुम ‘पति’ हो !

साधना वैद

11 comments:

  1. स्थितियाँ तो अब बदली हैं...

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  2. जी हाँ समीर जी, अवश्य बदली हैं लेकिन उनका प्रतिशत इतना नगण्य है कि बदलाव की बयार को पूरी ताकत के साथ बहने की सख्त ज़रूरत है ! धन्यवाद !

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  3. waah Sadhna ji ek patni ki paristhiti ko bakhoobhi baya kiya...

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  4. बहुत यथार्थ-परक चित्रण और सशक्त अभिव्यक्ति।
    और मैं सहमत हूँ आपसे - कि परिस्थितियों में बदलाव नज़र में आने लायक परिमाण में नहीं हुआ है।

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  5. बहुत सही लिखा है ,पत्नी की वास्तविकता का सही चित्रण किया है |
    आशा

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  6. shayad paristhiti utni bhi buri nahi rahi ab....
    khaas kar ke shehron mein....
    umeed hai hum sudhaar ki oor hain...
    bahut khub likha hai aapne....

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  7. na jane kitne dilo ko chhu gayi hogi aapki ye rachna aur sajal kar gayi hoti ankho ko....

    lekin saadhna ji...muaafi chahungi...badalaav ka pratishat naganye to nahi...aur agar mahilaye chaahe to thoda bold hoker is pratishat ko badha sakti hai...vo kehte he na nari agar devi he to durga bhi hai...bas jarurat he to sirf us durga tak ke safar ko kitni kushalta se tay kiya jaye.

    yaha me ye nahi kahti ki har hak k liye ladayi hi ki jaye....lekin apne adhikaro ke liye himmat to pehle khud me lani hogi na.

    kavita ne itna dravit kar diya ki rev.itna lamba ho gaya....kuchh galat ho to kshama praarthi hu.
    sadar.

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  8. आपकी टिप्पणी के लिए बहुत आभारी हूँ अनामिका जी ! आप शायद सत्य कह रही हैं बदलाव अवश्य आया है लेकिन उसका प्रतिशत इतना कम है कि वह नगण्य ही है ! मैंने आज भी कई शिक्षित घरों में पुरुषों को इसी मानसिकता से ग्रस्त देखा है ! इसी सन्दर्भ में मेरी अन्य कविता " तुम क्या जानो " भी अवश्य पढियेगा जो इसी माह की ३ या ४ तारीख को नारी के कविता ब्लॉग पर छपी है ! आपको अपने विचारों का प्रतिबिम्ब वहाँ अवश्य मिलेगा ! मुझे आपकी प्रतिक्रिया उस पर भी अवश्य चाहिए ! धन्यवाद के साथ उसकी लिंक दे रही हूँ -
    http"//indianwomanhasarrived2.blogspot.com

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  9. बीनाशर्माMay 19, 2010 at 2:58 PM

    मैं तो आपके कविता से शत-प्रतिशत सहमत हूँ और यह भी उतना ही दुखद पहलू है कि धनार्जन करने वाली महिलायें भी कमोवेश इन्ही स्थितियों की शिकार है कारण पैसा नहीं वरन वह मानसिकता है जो घुट्टी में घोल कर पिलाई गई है |जन्मते ही भाई पिता और अन्य पुरुष सम्बन्धियों के प्रति इस भाव का ही पोषण किया जाता है कि पहले उन्हें देखो,उनका ध्यान रखो तुम्हारा नंबर तो उन ्सबके बाद आएगा|घरों में छोटे भाई बहिनों की देखभाल केवल घर की छोटी े या बड़ी लड़की के हाथ ही क्यों सौंपी जाती है जबकि उसी घर में बड़ा भाई भी मौजूद होता है|
    अत: ये स्थितियां एक दिन में नहीं बनी इनको बदलने में लंबा समय तो लगेगा ही पर पहले हमें अपने सोच को बदलना आवश्यक हो गया है हम केवल शिकायत के अधिकारी ना रहें वरन आगे बढ़कर समस्या के बेहतर विकल्प तलाशें, तो शायद कोई ना कोई राह निकल ही आयेगी|

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  10. सही चित्रण . साधना जी ।
    प्रशंसनीय रचना ।

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  11. अच्छा प्रस्तुतिकरण है....स्थिति बदल रही है पर बहुत धीरे धीरे ....आज की पीढ़ी में बदलाव है...पर हम तो वही सोच सकते हैं जो बोगा गया यथार्थ है.....

    अच्छी रचना

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