Thursday, September 16, 2010

* कस्तूरी-मृग * - भाग ३

अब तक आपने पढ़ा -----
शिखा बाज़ार से लौटती है तो खाने के लिए माँ को इन्कार कर सीधी ऊपर चली जाती है ! माँ चिंतित हो बहू रचना को उसका हालचाल लेने के लिए भेजती हैं ! शिखा रचना को काम समाप्त कर उसके पास आने के लिए कहती है ! बाज़ार में रेडीमेड कपड़ों की दूकान पर उसकी पुरानी सहेली सरोज मिल जाती है जो इन दिनों शहर में ए डी एम के पद पर आसीन है ! शिखा उसे देख कर बहुत खुश हो जाती है ! सरोज का रुतबा और शान शौकत, उसकी सम्पन्नता और दुकानदार का सरोज के साथ खुशामदी व्यवहार शिखा को अपने बौनेपन का अहसास दिला जाते हैं और वह बहुत क्षुब्ध हो जाती है ! सरोज उसे बताती है कि उसकी सभी सहेलियाँ कुछ ना कुछ कर रही हैं और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं ! सरोज की मँहगी खरीदारी के सामने शिखा का अपना थोड़े से पैसों का छोटा सा बिल उसे और शर्मिन्दा कर जाते हैं !
अब आगे -----
शिखा अपने माता पिता की सबसे लाड़ली और सबसे छोटी संतान थी ! पिता जब भी किसीसे उसका परिचय कराते गर्व से उनका मुखमण्डल दीप्त हो उठता, “ यह हमारे घर में सबसे होनहार और प्रतिभाशाली है ! पढ़ाई में ही नहीं नृत्य, संगीत, अभिनय, बैडमिंटन, कैरम सभी में चैम्पियन है ! ढेरों कप्स और सर्टीफिकेट्स जीते हैं इसने ! “ पिता के प्रशंसापूर्ण वचनों को सुन शिखा फूली न समाती ! अपने भविष्य के लिए उसने बहुत सारे सपने सँजो रखे थे ! उसके जीवन का लक्ष्य था कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद न्यायाधीश के सर्वोच्च आसान पर बैठेगी ! इसीलिये उसने ग्रेजुएशन के बाद एम ए और एल एल बी दोनों में एक साथ दाखिला लिया था ! सरोज तब उसके साथ ही लॉ कॉलेज में पढ़ती थी ! मात्र चार पाँच महीने का साथ ही तो था ! लेकिन इन चार पाँच महीनों में ही शिखा की बुद्धिमत्ता और व्यक्तित्व का सिक्का पूरे कॉलेज में जम गया था ! आज जो सरोज ए डी एम के गरिमामय पद पर आसीन है उन दिनों शिखा के आगे पीछे उसके नोट्स माँगने के लिए घूमा करती थी ! भाग्य की बात थी ! शिखा के पिता रिटायर हो चुके थे ! माँ अक्सर बीमार रहा करती थीं ! शिखा उनकी सबसे छोटी संतान थी ! वे अपने सामने ही जल्दी से जल्दी उसके दायित्व से निवृत हो जाना चाहते थे ! अच्छा घर वर मिल गया तो उन्होंने शिखा के हाथ पीले कर देना ही उचित समझा ! विवाह से पूर्व उन्होंने धीरज और उनके माता पिता से शिखा की पढ़ाई अधूरी ना रहने देने का वचन अवश्य ले लिया था ! और वचन की यह क्षीण सी डोर थाम शिखा दुल्हन बन अपनी ससुराल आ गयी ! मन में अभी भी यह विश्वास अपनी जड़ें जमाये हुए था कि वह अपनी पढ़ाई ज़रूर पूरी करेगी और एक न एक दिन अपना न्यायाधीश बनने का सपना भी ज़रूर साकार करेगी !
शादी के बाद फाइनल इम्तहान का फॉर्म भरने के लिए जैसे ही शिखा ने अपनी सास जी से अनुमति माँगी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया, “ स्कूल कॉलेज में तो बहुत शिक्षा ले चुकीं बहूरानी ! अब घर गृहस्थी की शिक्षा भी ले लो ! वास्तविक जीवन में यही शिक्षा काम आयेगी ! मैंने तो धीरज की शादी इसीलिये जल्दी की थी कि बहू आकर घर गृहस्थी के कामों में मेरा हाथ बँटाएगी ! तुम पढ़ने के लिए फिर से मायके चली जाओगी तो फ़ायदा क्या हुआ ! “
सास के तीखे वचन सुन कर शिखा का ह्रदय टूट गया था ! भविष्य के लिए सँजोये सारे स्वप्न चूर-चूर हो गए थे ! एक मात्र सहानुभूति और सहयोग की अपेक्षा उसे धीरज से रह गयी थी ! सो वह भी टूट गयी जब उन्होंने भी उसके आँसू पोंछते हुए यही दिलासा दिया था कि, “ इस साल माँ का मन रख लो शिखा ! वे भी बीमार रहती हैं ! इम्तहान तो तुम अगले साल भी दे सकती हो ! इस घर में तुमने अभी नया-नया प्रवेश किया है सबकी भावनाओं का ध्यान रखोगी तो तुम्हारी जड़े यहाँ मजबूत होंगी ! और अभी से अपने मन की करोगी तो उस प्यार दुलार मान सम्मान से वंचित रह जाओगी जो इस घर में तुम्हारा स्थान बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है ! तुम माँ की बात मान लोगी तो हमेशा के लिए उनके दिल में जगह बना लोगी ! और ससुराल में आते ही उनका विरोध कर उनको नाराज़ कर दोगी तो सब तुमसे विमुख हो जायेंगे और यह तुम्हारे लिए ही अहितकर होगा ! “
शिखा का ह्रदय रो पड़ा पर उसके पास समझौता करने के अलावा अन्य कोई मार्ग न था ! धीरज की बात में व्यावहारिकता थी ! और नई नवेली दुल्हन में सास और पति की बात को अमान्य कर देने का साहस न था ! परिणामस्वरूप शिखा की पढ़ाई उस साल स्थगित हो गयी और उसके जीवन में वह सुखद ‘अगला साल’ फिर कभी नहीं आया जिसमें उसकी महत्वाकांक्षाओं के बीज अंकुरित हो सकते थे ! एक मासूम ह्रदय के मासूम से चंद सपने बेमौत मर गए थे !
शिखा की ससुराल का परिवार भी औसत आमदनी वाला एक आम मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार था जहाँ कर्तव्यों और दायित्वों के निर्वाह के लिए इच्छाओं, भावनाओं और कभी-कभी अपनी ज़रूरतों का भी गला घोंटना अनिवार्य हो जाता है ! धीरज परिवार में सबसे बड़े थे ! सबका ध्यान रखना, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना, और घर परिवार की सारी जिम्मेदारियों को जी जान से पूरा करना अपना धर्म समझते थे ! उनकी अर्धांगिनी होने के नाते हर कार्य में उनका सहयोग करने के लिए शिखा प्रतिबद्ध थी ! ननद की शादी, देवर की पढ़ाई, सास का ऑपरेशन, भांजे भांजियों के जन्म पर कभी छोछक तो ननद की ससुराल में उसकी भतीजी के विवाह में रीति रिवाजों और परम्पराओं के अनुसार कभी भात की व्यवस्था इत्यादि करने में शिखा सदैव धीरज के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी रही ! ऐसे में अपनी महत्वाकांक्षाओं को भूल जाने के सिवाय उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था ! इस बीच उसके अपने परिवार में भी अरुण और वरुण दो बेटों का आगमन हो गया था ! कभी भूली बिसरी महत्वाकांक्षाएं फिर से सर उठातीं भी तो सभी यह कह कर उसे चुप करा देते, ” अब अपनी पढ़ाई की बात सोच रही हो कि बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए ! “ और शिखा फिर मायूस हो जाती !
लेकिन आज सरोज से हुई इस छोटी सी भेंट ने उसके मन में हलचल मचा दी थी ! मन में एक हूक सी उठ रही थी ! उसकी पढ़ाई पूरी हो जाती तो और जल्दी शादी न की जाती तो आज उसका भी समाज में ऐसा ही मान सम्मान और रुतबा होता ! आँखों से क्षोभ के आँसू उमड़ते ही जा रहे थे ! उसे रचना भाभी की प्रतीक्षा थी ! शिखा से सारी बाते सुनने के बाद रचना गंभीर हो गयी थी, “ शिखा मैं तुम्हारे मन की पीड़ा बाँट तो नहीं सकती ना ही तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट कैरियर दिलाने में सक्षम हूँ ! लेकिन एक बात तुमसे ज़रूर पूछना चाहती हूँ क्या तुम्हारे लिए मात्र धनोपार्जन में ही शिक्षा की सार्थकता है ? क्या जीवन को केवल भैतिक स्तर पर रख कर सुख-दुःख के तराजू में तोला जाना चाहिए? भावनात्मक पहलू का कोई मोल, कोई महत्त्व नहीं होता ? “


( रचना ने शिखा को क्या परामर्श दिया यह मैं आपको अगली कड़ी में बताउँगी ! पाठक शिखा को क्या सलाह देंगे मुझे इसकी आतुरता से प्रतीक्षा है ! कृपया अपनी प्रतिक्रया से मुझे अवश्य अवगत करायें और शिखा के साथ-साथ मेरा भी मार्गदर्शन करें ! )
क्रमश:

11 comments:

  1. सिर्फ किताबी ज्ञान व्यवहारिक जीवन में मायने नहीं रखता मगर कामकाजी होने के लिए डिग्रियों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता ...
    पढने के लिए कोई उम्र नहीं होती , शिखा चाहे तो अभी भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सकती है ...
    आत्मनिर्भर होने के लिए डिग्रियां नहीं होने के बावजूद बहुत विकल्प हैं , जिन्हें घर में भी रहकर, घर की जिम्मेदारियां निभाते हुए भी किया जा सकता है ...

    ये सच है कि परिवार को दिए भावनात्मक पलों की अहमियत कम नहीं होती , मगर यह भी उतना ही बड़ा कड़वा सच है कि एक समय के बाद इसे आपका प्रेम /एहसान नहीं , सिर्फ आपका कर्तव्य ही माना जाता है ...और उस समय आपको अपने टूटे सपने बहुत सताते हैं ...!

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  2. शिखा को पढाई जरूर करनी चाहिये जरूरी नही कि पढ कर केवल नौकरी करना ही एक मात्र ध्येय होता है। विद्द्या,से आदमी के व्यक्तित्व का विकास होता है। जरूरत पडने पर धनोपार्जन भी किया जा सकता है। पढा लिखा व्यक्ति अच्छे समाज के निर्माण मे सहायक होता है। इस लिये शिखा को आगे जरूर पढना चाहिये । जीने का उत्साह दोगुना हो जायेगा। अच्छी चल रही है कहानी। बधाई।

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  3. बीना शर्माSeptember 16, 2010 at 11:50 AM

    आपने प्रश्न तो बहुत अच्छा उठाया है |मेरी अपनी व्यक्तिगत राय है कि प्रत्येक व्यक्ति के सुख का आधार अलग-अलग होता है \यदि जिंदगी में कभी लगे कि हम्स्वयम से असंतुष्ट हैं तो हम तुरंत वह करना शुरू कर दें जिसमे हमें अपनी मानसिक शान्ति मिलाती हो| दर असल समस्या यहाँ से शुरू होती है जब हम अपनी जिंदगी के कुछ फैसले इसलिए ले लेते है क्योंकि हमें लगता है अब यही उचित है|शिखा के पास भी विकल्प था वह पहले अपनी पढाई पूरी करती माँ-पिता का सहारा बनाती पर जब उसने एक परिवार से नाता जोड़ लिया है और उसीकी खुशियों में अपनी खुशिया ढूढ़ नी शुरू करदी तब अचानक सहेली के मिलाने पर उसके पदौर गरिमा से अभिभूत हो जाना और अपने को नीचे पायदान पर देखना उचित नहीं है शिखा जो भी कर रही है उसका पाना आनंद है |उसे मन में अफसोस नहीं करना चाहिए

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  4. बहुत अच्छी कहानी चल रही है ...

    जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं है ..घर परिवार ..उसकी ज़िम्मेदारी ...जब आ जाती है तो बहुत सी ख्वाहिशों का त्याग करना पड़ता है ...और यदि दृढ संकल्प हो तो परिवार को साथ देना होता है ...परिवार से अलग हो कर इच्छा पूरी की भी तो मन को सूकून नहीं मिलेगा ...
    हो सकता है बच्चों के अब थोड़ा बड़े हो जाने पर शिखा फिर से पढाई कर सकती है ...या अपने परिवार के प्रति समर्पित अपनी जिम्मेदारियों को इतने अच्छे से पूरा कर सकती है की उसके बच्चे जीवन में बहुत अच्छे बने ...
    वैसे पढाई कर के आगे बढ़ना चाहिए ..जिसमें उसके परिवार का भी सहयोग हो ...
    और फिर एक दिन अदालत में सरोज के पति का ही कोई केस आ जाये :):)

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  5. रोचकता बनी हुई है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा।

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

    अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्‍ता भारत-१, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  6. जीवन के कटु अन्भावों का सार है कहानी मैं अच्छे लेखन के लिए बधाई
    आशा

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  7. ये बात तो सही है की परिवार ही प्रथम है लेकिन शिक्षा भी जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है ...शिक्षा अर्जन का धेय निश्चित पैसा कमाना नहीं लेकिन जीवन में पैसे का महत्व भी प्रासंगिक है ...और वर्तमान परिपेक्ष्य में तो पति पत्नी दोनों बराबरी से काम कर के परिवार को और आगे ले जासकते है . महंगाई के इस ज़माने में मध्यमवर्गीय परिवारों में एक की कमी पर निर्वाह बहुत कठिन है ...ऐसे में पढाई और औरतों के काम करने को लेकर शिखा के परिवार की संकीर्ण सोच का बदलना ही कहानी के उद्देश्य को सार्थक करता है ....शिखा उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही है जो इन हालातों से गुजर रहे है ....इसलिए उसकी भूमिका प्रेरणादायी होना चाहिए .
    आभार
    यहाँ भी पधारे
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/
    http://anushkajoshi.blogspot.com/

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  8. बहुत सुन्दर, शानदार और रोचक कहानी प्रस्तुत किया है आपने जो काबिले तारीफ है!अब तो अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है!

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  9. कहानी के माध्यम से आपने, कितनी ही शिखाओं के मन का दर्द उकेर दिया....कभी ना कभी एक कसक तो उठती ही है,लेकिन फिर जब मुड़कर अपने बलिदानों के प्रतिफल पर नज़र पड़ती है तो निराशा गायब हो जाती है. और शिक्षा का अर्थ धनोपार्जन ही नहीं है. शिक्षित व्यक्ति, अपने हर किए कार्य पर एक अलग ही प्रभाव छोड़ता है. हर काम को वह सफलतापूर्वक संपादित कर सकता है.

    शिक्षा ग्रहण करने पर उम्र की कोई पाबंदी नहीं है. जिम्मेदारियों से थोड़ी राहत मिलने पर वापस शुरू की जा सकती है और कोई दूसरा कोर्स कर के भी समय का सदुपयोग किया जा सकता है.
    अगर गौरकरें तो कामकाजी महिलायें भी कितना कुछ खोती हैं....अपने बच्चों के बचपन के हर क्रियाकलाप में शामिल नहीं हो पातीं.
    दोनों ही कुछ ना कुछ खोते हैं.

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  10. बहुत रोचक कहानी प्रस्तुत की आपने जो आम जिंदगियों से होती हुई गुज़रती है. प्रश्न बहुत अच्छा है...मैं तो सबसे पहले यही कहूँगी की शिखा को सरोज का ओहदा देख खुद को दुखी नहीं करना चाहिए..अपितु...किसी को भी किसी को देख कर तुलना कर खुद को दुखी नहीं करना चाहिए..शिखा अपने परिवार में पाए गए और दिए गए सुखों को कैसे भूल सकती हैं..जो एक अच्छी बहु के रूप में उसने कर्तव्य निभाए उन्हें सोच कर खुद को ही एक तृप्ति...एक सकूं मिलता है...वो तो है ना आज उसके पास जिससे वो गर्व से सर उठा कर कह सकती है की उसने एक अच्छी बहु,एक अच्छी पत्नी,एक अच्छी माँ, एक अच्छी भाभी बन कर निभाए...ये सब इतना आसान तो नहीं है ..तब जब की वो घर की सबसे बड़ी बहु हो.

    अब आते हैं शिखा के अपने आत्म-संतोष की बात पर...अब ससुराल के उसके देवर, नन्द के फ़र्ज़ पुरे हो चुके हैं...बच्चे पढ़ने वाले हो गए हैं. अब वो चाहे तो अपनी पढाई की शुरुआत कर सकती है. और ये तो जरुरी नहीं की पढाई को कमाई का माध्यम बनाया जाये...पढई अपने आत्मिक सुख के लिए भी की जाती हैं...जहाँ तक मैं सोचती हूँ..शिखा को कमाई के बजाये आत्मिक सुकून चाहिए पढ़ कर...और वो अभी भी पा सकती है...पढाई की कोई उम्र तो नहीं है.

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  11. अपने अनमोल विचारों से अवगत कराने के लिए मैं सभी पाठकों की ह्रदय से आभारी हूँ ! आप सभी ने शिखा के लिए बिलकुल सही रास्ता बताया ! मुझे बहुत प्रसन्नता हुई इस बात से कि कहानी में रचना के माध्यम से जो परामर्श मैंने शिखा को दिया उसे सभी प्रबुद्ध पाठकों से भी मान्यता मिली है ! आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद !

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