Tuesday, November 23, 2010

अब और नहीं

अपने अंतर महल की रसोई में
हर आम भारतीय नारी ने
अपने सपनों की आँच को
सुलगा कर चूल्हा जलाया है,
और कर्तव्यों की कढ़ाही में
अपनी खुशियों और अरमानों
का छौंक लगा कर अपनी
सम्पूर्ण निष्ठा और लगन,
प्रतिभा और समर्पण,
सद्भावना और प्यार के साथ
समस्त परिवार के लिये
आजीवन सुस्वादिष्ट
व्यंजनो को पकाया है !

महज़ इस आस में कि
कभी तो कोई उसके
समर्पण की कद्र करेगा,
उसके अनमोल असाध्य
श्रम को समझेगा, सराहेगा
उसकी कोमल भावनाओं का
सम्मान करेगा !

लेकिन अक्सर यह आशा
धूमिल होते-होते
वक्त की स्लेट से
बिल्कुल ही मिट जाती है
और उस नारी की
प्रत्याशा भी क्षीण होकर
दम तोड़ जाती है !
क्योंकि प्रशंसा के बदले
वह पाती है
उपालंभ और उलाहने,
व्यंग और कटूक्तियां,
तिरस्कार और अवहेलना !

तभी एक आक्रोश उसके मन में
जन्म लेता है और कहीं
अंतरतम की गहराई से
विद्रोह के स्वर फूटते हैं,
“बस बहुत हो गया,
अब और नहीं !”
अब उसे अपनी खुशियों का
और बलिदान नहीं करना है !
अब उसे हर व्यंजन अपनी
खुशियों और अरमानों से सजा कर
किसी और के लिये नहीं
केवल अपने लिये बनाना है
जिससे उसे सुख मिले
उसे संतुष्टि प्राप्त हो
और अपनी नज़रों में उसका
अपना मान बढ़े !

साधना वैद

11 comments:

  1. http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/11/blog-post_9611.html

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  2. आदरणीय साधना वैद जी
    नमस्कार !
    सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
    कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

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  3. वाह क्या क्या सोच लेती है गृहणी घर की रसोई में खड़ी...ऐसे लग रहा है जैसे पुरीयाँ तलते तलते कविता का सृजन हो गया हो. :)

    आज आपकी कविता में उपलाम्भ का समावेश है...परन्तु क्यों ? क्या आप बिना समर्पण भाव के
    एक अच्छी रसोई तैयार कर सकती हैं और अगर कर भी लें तो जो खिलाएंगी...बिना खुशी, बिना समर्पण के...उस से खुशी या सुकून पा लेंगी..(चाहे उसके समर्पण की कद्र न हो)

    और जब ये सोच की हो गया बहुत अब और नहीं...तो क्या इस से सुकून मिल जायेगा ?
    और अपने लिए ही बना कर क्या संतुष्ट हो जायेगी ? साधना जी स्त्री को भगवान नें ऐसा ही बनाया है की समर्पण कर के सुकून महसूस करती है.

    कविता में कहीं कोई झोल नहीं है...एक दम दुरुस्त रचना बन पड़ी है.

    बधाई.

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  4. " अपने अंतर की आंच का चूल्हा जलाया है -----सुस्वाद भोजन पकाया है "
    बहुत सुंदर लगी कविता |लग रहा है चौके में नए
    सृजन के लिए बहुत समय मिल ,पा रहा है आजकल |
    कविता बहुत बहुत बहुत अच्छी लगी |बधाई |
    आशा

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  5. अब उसे हर व्यंजन अपनी
    खुशियों और अरमानों से सजा कर
    किसी और के लिये नहीं
    केवल अपने लिये बनाना है
    जिससे उसे सुख मिले
    उसे संतुष्टि प्राप्त हो
    आम भारतीय नारी को सुख और संतुष्टि भी तो परिवार को संतुष्ट करके ही मिलती है ....

    आपकी रचना में भारतीय नारी कि वेदना को बहुत अच्छे से उकेरा गया है ...सुन्दर और भाव पूर्ण प्रस्तुति ..

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  6. ्नारी मन की वेदना का सटीक चित्रण किया है मगर नारी मन आखिर नारी मन होता है कब अपने लिये जीता है …………सुन्दर भावपूर्ण रचना।

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  7. बहुत खूब
    एकदम सटीक लिखा है आभार
    कभी यहाँ भी आये

    www.deepti09sharma.blogspot.com

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  8. महज़ इस आस में कि
    कभी तो कोई उसके
    समर्पण की कद्र करेगा,
    उसके अनमोल असाध्य
    श्रम को समझेगा, सराहेगा
    उसकी कोमल भावनाओं का
    सम्मान करेगा !

    दिल को छू गये आपके हर शब्द
    dabirnews.blogspot.com

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  9. साधना जी एक बहुत ही कॉमन सी बात आपने जिस अंदाज में कही है वह कबीले तारीफ है .बहुत ही अच्छा लगा पढ़ना.बहुत भावपूर्ण.

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  10. गृहिणी जो परिवार के लिए ही सब सोचती है . अब थोडा समय खुद को भी देना चाहती है ....
    एक आम भारतीय स्त्री की इच्छा और सोच पर अच्छी कविता !

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  11. man ki chot ko sunder tareeke se likh dalin hain.

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