Saturday, September 15, 2012

वार पर वार



आम आदमी पर आज फिर सरकार का कहर टूटा है ! डीज़ल और रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि ने देश भर में लोगों को सकते में डाल दिया है ! घोर आश्चर्य और क्षोभ होता है मुझे हमारे नेताओं की संवेदनशून्यता पर कि मँहगाई और आर्थिक संकट से पहले से ही जूझ रही जनता पर सरकार इतने अमानवीय फैसले कैसे थोप सकती है ! पिछले कुछ वर्षों में खाने पीने की वस्तुओं के दाम इस कदर बढ़े हैं कि आम आदमी की प्रतिदिन की भोजन की थाली में से अति आवश्यक खाद्य पदार्थ जैसे दूध, फल, साग सब्जियों इत्यादि की मात्रा में क्रमश: गौरतलब कटौती होती जा रही है ! अब रसोई गैस के दाम बढ़ा कर और एक परिवार को साल में केवल छ: सिलेंडर सब्सीडाइज्ड रेट्स पर और बाकी सिलेंडर फुल रेट्स पर देने की घोषणा करके उनकी थाली से सूखी रोटी छीन लेने की भी पूरी तैयारी सरकार ने कर ली है ! जनता संसद में जिन प्रतिनिधियों को चुन कर भेजती है उनसे उम्मीद करती है कि वे उसके हितों की रक्षा करेंगे और उसे संकटों से उबारेंगे ! लेकिन वे संसद में पहुँच कर ऐसे नियम क़ानून बनाते हैं जनता के लिये ? जिन लोगों के पास अथाह पैसा है उनके लिये किसी भी कायदे क़ानून से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि वे तो कुछ भी किसी भी कीमत पर हासिल कर सकते हैं लेकिन जिनकी आमदनी बहुत सीमित है और जिनके हाथों में गिने चुने पैसे आते हैं वे क्या करें और कैसे इन रोज रोज की समस्याओं से पार पायें इसके गुर कोई सिखायेगा उन्हें ?
जो लोग संसद में पहुँच जाते हैं या भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हैं वे येन केन प्रकारेण अकूत धन संपदा अर्जित करके समाज की अति धनाढ्य श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लेते हैं ! उनकी आमदनी, बैंक बैलेंस और तनख्वाह का कोई ठिकाना नहीं होता ! अपने पद और रुतबे का प्रयोग कर हर चीज़ वे चुटकियों में हासिल कर लेते हैं ! इसके बावजूद भी अपने कार्यकाल में ना जाने कितनी बार उनके वेतन में बढ़ोतरी हो जाती है ! ना जाने कितनी तरह के भत्ते उन्हें मिल जाते हैं ! यहाँ तक कि घरेलू नौकर के लिये भी उन्हें अलाउएंस मिल जाता है ! वह एक कहावत है ना ---
अंधा बाँटे रेवड़ी और फिर फिर खुद को देय !
लेकिन आम आदमी क्या करे ! वह कैसे अपनी आमदनी बढ़ाये ! कहाँ से इतना पैसा लाये कि बच्चों की दिन प्रतिदिन मँहगी होती पढाई, स्कूल की फीस, दवा इलाज और खाने की थाली से नज़रों के सामने हर रोज गायब  होते जा रहे अत्यावश्यक खाद्य पदार्थों की त्रासदी से समझौता कर सके ! हमारी भ्रष्ट और असंवेदनशील व्यवस्था क्या इस तरह आम जनता को गलत तरीके अपना कर आमदनी बढ़ाने के लिये उकसा नहीं रही है ? तभी जब होली दीवाली पास आ जाती है सड़कों पर अचानक वाहनों की चैकिंग और ट्रैफिक रूल्स का अनुपालन बड़ी सख्ती से कराया जाने लगता है !
सरकार यदि जनता की समस्याओं, चिंताओं और परेशानियों से वाकई कोई सरोकार रखती है तो समाज में ऐसी विसंगति और विषमता का अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए ! गाँधीजी जब दक्षिण अफ्रिका से भारत लौट कर आये थे तो यहाँ कि राजनीति में प्रवेश करने से पहले वे भारत दर्शन के लिये निकले थे और आम आदमी की गरीबी और लाचारी से इतने द्रवित और विचलित हुए थे कि अपने तन के कपड़े तक उतार कर उन्होंने दान में दे दिये थे ! और उसके बाद से उनके तन पर मात्र एक धोती ही दिखाई देती थी ! उनका मानना था कि जब देश की जनता के तन पर पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं उन्हें सूटेड बूटेड रहने का कोई अधिकार नहीं है ! आज के हमारे नेता छप्पन प्रकार के व्यंजनों से सजे अपने दस्तरखान पर खाना चखने से पहले कभी सोचेंगे कि उनके देश के आम आदमी को आज एक वक्त की रोटी भी पेट भर कर नसीब हुई है या नहीं ? कभी उन्होंने सोचा है कि जिस जनता को निचोड़ कर वो ऐश कर रहे हैं उसके प्रति उनका भी कोई नैतिक दायित्व है ?
मँहगाई का यह दंश कितना चुटीला है और आम इंसान को कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है यदि वे सचमुच इसके प्रति गंभीरता से चिंतित हैं तो उन्हें अपनी सारी सुख सुविधाओं का त्याग कर देना चाहिये ! अपनी बढ़ी हुई आमदनी और वेतन को अस्वीकार कर देना चाहिये ! भारत में प्रति व्यक्ति जो औसत आमदनी है उन्हें भी वही ग्रहण करना चाहिये और जिस तरह एक आम इंसान कदम कदम पर हर एक वस्तु के लिये संघर्ष कर उसे हासिल रहा है उन्हें भी उसी प्रक्रिया से गुजर कर अपनी थाली में भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए ! उन्हें किसी भी प्रकार का फेवर या सुविधा ग्रहण करने से परहेज़ करना होगा ! तभी शायद वे आम आदमी की ज़द्दोज़हद को गहराई से अनुभव कर पायेंगे और तब ही शायद वे ईमानदारी से उसकी इस लड़ाई में उसके साथ उसके हितों के लिये लड़ पायेंगे !
लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि वो ऐसा करना भी चाहेंगे ? यह युग गांधी जी का युग तो नहीं है ना ! ना देश के नेता ही गाँधी जी जैसे हैं ! अब तो सब राम भरोसे चल रहा है ! कहीं यह भी मिस्र के ‘तहरीर चौक’ की कहानी का आगाज़ तो नहीं ?

साधना वैद


  

18 comments:

  1. कहीं यह भी मिस्र के ‘तहरीर चौक’ की कहानी का आगाज़ तो नहीं ?

    बस एक बार ऐसा हो जाये

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  2. बहुत ज्वलंत मुद्दा उठाया है |अच्छी लेख |
    आशा

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  3. अपनी क़ब्र ख़ुद कैसे खोदी जाती है ?
    यह कांग्रेस के दाम बढ़ाने के फ़ैसलों को देखकर जाना जा सकता है। अब कांग्रेस का जाना तय है। यह क़ीमतें थोड़ी बहुत कम भी कर दे तब भी यह जाएगी ही। पूंजीपति नोट दे सकता है लेकिन वोट तो जनता से लेना है। जनता की कमर तोड़ दी जाएगी तो वह पोलिंग बूथ तक कैसे आएगी ?
    और आएगी भी तो वह नए विकल्प को आज़माकर पुराने को सज़ा देगी। यह और बात है कि नया विकल्प पुराने से भी ख़राब ही निकलता आया है इस देश में।

    नफ़ाबख्श बनिए और लोगों के दिलों पर राज कीजिए।

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  4. परिवर्तन के नाम पर सिर्फ वार ... आम इन्सान है परेशान,कैसे हो समाधान

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  5. ज्वलंत मुद्दे पर लिखा सटीक और सार्थक लेख .... आज नेता वही बनाता है जो हेरा फेरी करने में माहिर है ... आम जनता के बारे में किसी भी पार्टी को चिंता नहीं है ।

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  6. एक ऐसा मुद्दा जिससे आज सभी भारतीय परेशान हैं

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  7. प्रति व्यक्ति औसत आय का उपभोग किये जाने का सुझाव बहुत बढ़िया है !

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  8. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को आज दिनांक 17-09-2012 को ट्रैफिक सिग्नल सी ज़िन्दगी : सोमवारीय चर्चामंच-1005 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  9. ज्वलंत समस्या पर लिखा गया आपका ये लेख बहुत माने रखता है. इस कालचिंतन के लिए आपको बधाई है.

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  10. " जब देश की जनता के तन पर पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं उन्हें सूटेड बूटेड रहने का कोई अधिकार नहीं है ! आज के हमारे नेता छप्पन प्रकार के व्यंजनों से सजे अपने दस्तरखान पर खाना चखने से पहले कभी सोचेंगे कि उनके देश के आम आदमी को आज एक वक्त की रोटी भी पेट भर कर नसीब हुई है या नहीं ? कभी उन्होंने सोचा है कि जिस जनता को निचोड़ कर वो ऐश कर रहे हैं उसके प्रति उनका भी कोई नैतिक दायित्व है ?" ----

    --बिलकुल सत्य है साधना जी...परन्तु क्या हमने कभी यह भी सोचा है कि हमारे अधिकारी,इंजीनियर, चिकित्सक, पत्रकार ,खिलाड़ी, फ़िल्मी लोग, कोर्पोरेट के लोग ...क्या शूटेड-बूटेड नहीं रहते (नेता तो रहते भी नहीं हैं- प्राय: सफ़ेद धोती में होते हैं ..), बड़ी-बड़ी पार्टियों में, शराव के दौर में नहीं व्यस्त हैं ...क्या इन सब का -हम सब का नैतिक दायित्व नहीं है कि इस पर सोचें और अपने दायित्व पर भी सोचें और कार्य करें ......सिर्फ नेता ही क्यों...????
    ---खराब तो सारा का सारा अवा ही है....

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  11. आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद गुप्त जी ! अपने देश और देशवासियों के लिये सहानुभूतिपूर्ण नज़रिया रखना तो हर देशवासी का कर्तव्य होना ही चाहिए फिर चाहे वह अधिकारी हो, इंजीनियर हो, चिकित्सक हो, पत्रकार या खिलाड़ी हो या फिर अभिनेता या कोर्पोरेट जगत से सम्बन्ध रखने वाला कोई उद्यमी हो ! जीवित रहने के लिये और अपने बाल बच्चों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये जिन्हें दिन रात अनवरत संघर्ष करना पड़े ऐसे लोगों के लिये जब हद दर्ज़े की संवेदनहीनता का तमाशा देखने के लिये मिलता है तो दिल दुखता है ! आम इंसान की तकलीफों के लिये सभीको अपने व्यक्तिगत हितों की चिता छोड़ सामने आना ही चाहिए लेकिन नेताओं से विशेष अपेक्षा सिर्फ इसीलिये है क्योंकि वे यदि ईमानदार हैं और संवेदनशील हैं तो बहुत कुछ कर सकते हैं क्योंकि उनके पास ताकत भी है और जनता के हितों में नीति नियम और कायदे क़ानूनों को बनाने की सुविधा भी है ! लेकिन जिस तरह का चलन आजकल दिखाई देता है उसके अनुसार संसद में बैठ कर हमारे नेता केवल अपनी और अपने रिश्तेदारों की हित चिंता में लगे रहते हैं या ऐसे 'बड़े लोगों' को फ़ायदा पहुँचाने के लिये कानूनों में हेराफेरी करते रहते हैं जिनसे भविष्य में उन्हें भी फ़ायदा होने की उम्मीद हो ! रहा सवाल कपड़ों का तो मैंने सिर्फ गाँधी जी का उदाहरण दिया था ! वैसे भी आजकल सफ़ेद धोती पहनने वाले नेता गिनेचुने ही दिखाई देते हैं ! आजकल तो सभी सूटेड बूटेड रहते हैं !

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  12. और इसके बाद खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश..मुझे तो यह इतिहास की पुनरावृति लग रही है.

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  13. सभी आदरणीय टिप्पणीकारों की मैं ह्रदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मेरे विचारों पर चिंतन किया ! बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी का !

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  14. बेहद सार्थक व सटीक प्रस्‍तुति... आभार

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  15. एक ज्वलंत मुद्दे का बहुत सटीक विश्लेषण ...

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  16. एक ज्वलंत मुद्दे पर लिखा सटीक और सार्थक लेख .... !!

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  17. aisi post aur ye mudde soch soch kar bahut dukh hota hai. lekin ye mahngayi sharon me kam hi asar karti hai. aap servent tabka le li jiye jo gharo me kaam karti hain...unke kothiyon me kaise bhaav badhe hue hain.....tum 1-2 kam extra kara lo ya daant-dapat do unki kamchori par to aana band kar deti hain. rikshe wale ko dekhiye...1 km ki doori k liye 20rs. maang leta hai jo ki hisab lagaya jaye to petrol se bhi mehnga padta hai. dhobi ko dekhiye kapdo ke dhulne/press k bare me kuchh teeka tippani karo to saaf kapde nahi dhota ya kapda aadha press kar k chhod deta hai...in sab ke baad jo bachta hai vo middle family man jo lower post par aur pvt. job karta hai vahi sabse jyada marta hai.

    ya fir gaanv me rahne wale garibon par is mehngayi ka asar marne ki halat tak hai.

    kehne ka arth he ki shehri gareeb to peedit hota nazar nahi aata.

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