Sunday, May 26, 2013

दुर्गम पथ के राही



दुर्गम पथ के राही तुम कुछ पल तो रुकते
मज़िल की पहचान तुम्हें खुद ही मिल जाती !

पथ के सारे शूल तुम्हारी उंगली थामे
हर पल चलते साथ जहाँ तक पग ले जाते,
पथरीली राहों पर बिखरी रक्तिम बूँदें  
दिख जातीं जो नीचे झुक कर नज़र बिछाते,
रक्त कणों के पद चिन्हों पर यदि तुम चलते
मंज़िल थी अनजान तुम्हें खुद ही मिल जाती ! 
   
जाने कितने पथिक भटक कर रस्ता अपना
इन चिन्हों की राह पकड़ कर चलते जाते,
उनके अंतस का सारा लावा बह जाता
इनसे अपने दिल की बातें कहते जाते ,
तुम भी जो सुन लेते राही इनकी बातें
मंज़िल थी गुमनाम तुम्हें खुद ही मिल जाती !

नभ के सारे तारे लाखों सूरज बन कर
राहों का अंधियारा पल में दूर भगाते ,
मन के कोने-कोने को आलोकित करके
दुविधा और हताशा का तम हर ले जाते ,
रुक जाते जो राही मन में आशा भर कर
मंज़िल हो आसान तुम्हें खुद ही मिल जाती ! 
 
पथ के सारे तरुवर पात हिला कर अपने
तुमको आगे बढ़ने की हिम्मत दे जाते ,
मृदुल पवन के हाथ पोंछ कर श्रम सीकर को
जादू सा कर क्लांत बदन को सहला जाते ,
धीरज धर कर दो पल तो रुक जाते राही
मंज़िल चल कर पास तुम्हारे खुद आ जाती !

साधना वैद






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