Wednesday, June 11, 2014

कह दो कान्हा


पत्थर की मूरत से पीड़ा कौन कहे
मन के दावानल की ज्वाला कौन सहे 
सारे जग की पीर तुम्हें यदि छूती है
तो कान्हा क्यों मेरे दुःख पर मौन रहे !
  
विपथ जनों को राह तुम्हीं दिखलाते हो
पर्वत जैसी पीर तुम्हीं पिघलाते हो 
भवतारण दुखहारन करुणाकर कान्हा
मेरे अंतर का लावा किस ओर बहे !

नैनों में बस एक तुम्हीं तो बसते हो
मधुर मिलन की सुधियों में तुम हँसते हो
वंंशी के स्वर के संग जो बह जाती थी
उर संचित उस व्यथा कथा को कौन गहे !

बने हुए क्यों निर्मोही कह दो कान्हा
फेर लिया क्यों मुख मुझसे कह दो कान्हा
चरणों में थोड़ी सी जगह मुझे दे दो
राधा क्यों अपने माधव से दूर रहे !

श्याम तुम्हारे बिन यह जीवन सूना है
क्यों साधा यह मौन मुझे दुःख दूना है
थी तुमको भी प्रीत अगर बतलाओ तो
कैसे तुम अपने स्वजनों से दूर रहे !

साधना वैद


1 comment:

  1. बहुत सुन्दर भाव लिए रचना है |

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