Sunday, February 8, 2015

हताशा

थक गयीं हैं आँखें
मद्धम हो गये हैं सितारे
छिप गया है चाँद
और अब तो
सारी कायनात भी
जैसे गहन अन्धकार में
डूब गयी है
मेरा मन भी
थक चला है
आशाएं
डूब चली हैं
उम्मीद की डोर
उँगलियों की पकड़ से
छूट चली है
ना कोई सन्देश
ना कोई संकेत
ना कोई आशा
ना कोई दिलासा
बीत चला है यह
   खुशनुमां मौसम भी   
पर तुम न आये !

साधना वैद

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