Wednesday, December 2, 2015

जग की रीत



उगते सूरज को सभी, झुक-झुक करें सलाम 
जीवन संध्या में हुआ, यश का भी अवसान ! 

बहती जलधारा कभी, चढ़ती नहीं पहाड़ 
एक चना अदना कहीं, नहीं फोड़ता भाड़ ! 

चूर हुआ शीशा कभी, जुड़ता नहीं जनाब 
मोती गिरता आँख से, खोकर अपनी आब ! 

अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर खुद को देय
जनता को भूखा रखें, 'नेता' का यह ध्येय ! 

'राज' करेंगे जो दिया, 'राजनीति' का नाम 
'दासनीति' कहिये इसे, और करायें काम ! 

नेता सारे एक से, किसकी खोलें पोल 
अपनी ढकने के लिये, बजा रहे हैं ढोल ! 

बाप न मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज़ 
नेताजी के पूत का, नया-नया अंदाज़ ! 

वाणी में विद्रूप हो, शब्दों में उपहास 
घायल कर दे बात जो, यह कैसा परिहास ! 

भर जाते हैं ज़ख्म वो, देती जो तलवार 
रहते आजीवन हरे, व्यंगबाण के वार ! 

जीवन जीने के लिये, ले लें यह संकल्प 
सच्ची मिहनत का यहाँ, कोई नहीं विकल्प ! 



साधना वैद
 


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