Sunday, February 14, 2016

दर्द की इबारतें



दर्द की
टेढ़ी मेढ़ी इबारतें
वक्त के सीने पर
सुर्ख हर्फों में
हर रोज़ उकेरती हूँ !
एक बार तो तुम
मुड़ कर देखो
मैं किस तरह
हर रोज़
जी जी कर मरती
और मर मर कर जीती हूँ !
मुँदी पलकों तले
सुहाने से सपनों की
सुकुमार सी पौध
हर रात रोपती हूँ
और सुबह होते ही
यथार्थ की प्रखर आँच से
जलती झुलसती
उस पौध को
अपने ही हाथों से
उखाड़ फेंकती हूँ !
मुद्दत से जानती हूँ
नींद में देखे हुए
सुहाने सपनों का
हकीकत की दुनिया में
यही हश्र होता है !
दर्द की इबारतों को भी
वक्त के सीने पर
इसी तरह उकेरना होता है
ताकि लंबे समय तक
मैं उन्हें पढ़ कर
दोहराती रहूँ और
यह सबक मेरी
अंतरात्मा पर भी
इतनी अच्छी तरह
खुद जाये कि
मैं उसे कभी
भूल ही न पाऊँ !

साधना वैद 

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