Monday, August 29, 2016

बचपन की गलियाँ


कल ज़िंदगी मेरे पास आई 
चुपके से मुस्कुराई 
हौले से मेरे बाल सहलाये
धीरे से गालों पर चपत लगाई 
और फिर मेरी उंगली पकड़ 
मुझे उठा ले गयी 
दूर बहुत दूर 
बचपन की उन 
भूली बिसरी गलियों में 
जहाँ ढेर सी खुशबू थी 
बहुत सारा अल्हड़पन था 
सागर भर मासूमियत थी 
आकाश भर मस्ती थी 
और था ब्रह्मांड भर प्यार और 
ढेर सारी खुशियाँ ही खुशियाँ ! 
कितनी यादों ने करवट ली 
कितनी मासूम शरारतों ने 
मन को गुदगुदाया 
कितने नामों ने मन की 
कुंडी खटखटाई 
कितनी सहेलियों ने 
आवाज़ दे पुकारा !
अपने घर की गैलरी से 
सामने सहेली के घर की 
खिड़की तक तनी 
दियासलाई की डिब्बियों की 
वाॅकी टॉकी,
बाल्टियाँ भर-भर होली के रंग 
और पिचकारी भर 
हर आने जाने वाले पर 
फिंकती रंगों की धार,
भीगने वाले की रोष भरी निगाहें 
और आकाश को गुँजाते 
हमारे कहकहों की 
गगनभेदी टंकार,
दीवाल पर बने संजा के माँडने 
और दरवाज़े पर सजी रंगोली,
स्कूल के खेलकूद और 
पक्की वाली सहेलियों की 
एकदम पक्की वाली टोली,
खो-खो, अष्ट चंग, गुट्टे 
और कूदने वाली रस्सी 
इमली के खट्टे-मीठे कटारे 
और लम्बी सी छड़ी पर झूलते
शक्कर के जानवरों की
सुन्दर सी मनभावन हँसी !
सब कुछ याद आया 
जब पैरों ने उस धरती को छुआ 
जिस पर कभी हमारे 
नन्हे-नन्हे पैरों ने 
खूब धमाचौकड़ी मचाई थी 
तालाब के गहरे पानी को देख 
ना जाने क्यूं 
आँख भर आई थी ! 
मन के चित्र पटल पर 
बचपन की खूबसूरत यादें 
हवा के मदमस्त झोंके की तरह 
भीनी-भीनी खुशबू बिखेरतीं 
एक के बाद एक
चली आई थीं 
और मैं भारी मन से 
वापिसी की राह पर 
बोझिल कदम धरती 
धीरे-धीरे यथार्थ के 
निर्मम धरातल पर 
लौट आई थी ! 


साधना वैद
 



No comments:

Post a Comment