Saturday, September 17, 2016

बह जाने दो




मौन के गलियारों में गूँजती
खामोश चीत्कारों में निरुद्ध
अनकही वेदना की
इस प्रतिध्वनि से
विक्षुब्ध हूँ मैं !

तुम्हारे कंठ में 
चिरकाल से बसी
इस घुटी हुई सिसकी के
आवेग की तीव्रता से
स्तब्ध हूँ मैं ! 

कितनी हलचल है !
कितना शोर है !
कितनी उथल-पुथल है
कितना हाहाकारी विप्लव है !

रोको मत स्वयं को !
एक बारगी ही  
सम्पूर्ण आक्रोश के साथ भड़क कर  
अपने अंतर की इस ज्वाला को
बुझ जाने दो
जो ऊँची-ऊँची लपटों से
झुलसाती दहकाती
तुम्हारे सर्वांग को जला कर
राख कर देने पर आमदा है ! 

रोको मत स्वयं को !
एक बारगी ही  
अम्बर की छाती को
विदीर्ण कर देने वाले
प्रलयंकारी रोदन के साथ
सदियों से तुम्हारे अंतर में
उमड़ते घुमड़ते इस लावे को
सारे तट बंधों को तोड़ते हुए
बह जाने दो
जिसने तुम्हारे अस्तित्व को
निरंतर एक असह्य आँच में
तपा कर पिघली हुई मोम में
परिवर्तित कर दिया है !

आज हहरा कर फट जाने दो
इस ज्वालामुखी को
सुना है जिस धरा पर
ज्वालामुखी सक्रिय होता है
कालान्तर में वहाँ की धरा
उर्वरा हो जाती है ! 



साधना वैद



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