अंश
मेरे,
हर
प्रखर मौसम की 
निर्मम मार
से 
जिनको
बचाया 
फड़फड़ा
कर पंख 
उड़ कर
दूर जाने को
स्वयं
आतुर हुए-से, 
मोह के
सतरंग धागे 
थाम रखा
था 
जतन से
जिनको मैंने 
उँगलियों
से छूट कर 
खुलते
हुए-से !
रिक्त
है मन 
रिक्त मधुबन  
रिक्त
है घर
रिक्त
जीवन !
घट चली
है एक रुत  
फूलों भरी-सी 
खुशबुओं
से बहलना 
अब आ
गया है, 
बंद कर
दो गीत सब 
सुख से
भरे अब 
हमको
फिर से
मौन
रहना 
भा गया
है !
फिर वही
पतझड़ का मौसम
फिर वही
वीरान मंज़र 
दर्द के
इस गाँव का
हर ठौर
पहचाना हुआ-सा 
हैं
सुपरिचित रास्ते सब  
और सब खामोश
गलियाँ 
साथ
मेरे चल रहा है दुःख  
हमसाया
हुआ-सा !
साधना
वैद 


