Sunday, January 14, 2018

मैं पतंग



यह पतंग भी ना 
हू ब हू मेरे जैसी है !
पहली पहली बार उड़ाने की कोशिश में
वैसे ही बार बार गिर जाती है
जैसे अपने शैशव में
चलना सीखने के प्रक्रिया में
मैं बार बार गिर जाया करती थी !
बार बार दूर जाकर
हवा में खूब ऊँचे उछाल कर
फिर से उडाई जाती है
ठीक वैसे ही जैसे मुझे
बार बार सम्हाला जाता
और फिर चलाया जाता !
और अंतत: यह भी उड़ चली  
वैसे ही जैसे एक दिन
मुझे चलना आ गया !
आसमान की बाकी पतंगों के साथ
पेंच लड़ाने के लिए
पतंग की डोर में
काँच लगा हुआ माँझा
बिलकुल उसी तरह जोड़ा जाता
जैसे भविष्य की सारी स्पर्धाओं में
अव्वल आने के लिए माँ
मेरे जीवन की डोर में
व्यावहारिकता और संस्कारों का
माँझा बाँध दिया करती थी !
हवाओं का साथ पा जैसे
पतंग पलक झपकते ही
आसमान से बातें करने लगती
मैं भी युवा होते ही
अपने आसमान में अपने
संगी साथियों के साथ खूब
ऊँची उड़ने लगी !
सबके साथ सुख दुःख बाँटते
हँसते खिलखिलाते
दूर आसमान में उड़ना
खूब मन को भाने लगा !

कई साथी साथ रहे देर तक
कईयों के रास्ते बदल गए !
कई वक्त के साथ बिछड़ते गए
जिनकी डोर कटती गयी !
हवाओं के पंखों पर सवार
मेरी पतंग अभी भी गगन में
उड़ती जा रही है !
और कब तक उड़ पायेगी
नहीं जानती !
माँझा मज़बूत है या किस्मत
कौन जाने !
लेकिन एक दिन इस डोर का
कटना भी तय है
यह बिलकुल निश्चित है !


साधना वैद





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