Tuesday, October 23, 2018

एक फुट के मजनूमियाँ - भूमिका आदरणीय प्रतुल वशिष्ठ जी




बच्चे युगों-युगों से अपने बड़ों से कहानी सुनते आ रहे हैं ! अच्छे मनोरंजन के साथ सुनते-सुनते उनमें दूसरी तमाम क्षमताओं का विकास भी होता है ! सभी मानते हैं कहानियों से बच्चा न केवल व्यावहारिकता सीखता है अपितु उसकी कल्पनाशीलता उसे संवेदनशील बनाने में मदद भी करती है !

प्रस्तुत पुस्तक की कहानियाँ पुस्तक बनने से पहले लेखिका के अपने ब्लॉग ‘सुधिनामा’ पर प्रकाशित होती रहीं और मैं उनका ऐसा पाठक था जिसे उन कहानियों की तलाश थी जो बच्चों को सुनाते हुए उबाए नहीं ! जिस दुनिया में  ‘बालमन घूमते हुए कभी न थके; जहाँ मनमौजीपने को सम्मान और उपहार मिलें; जहाँ हर जीव-जंतु की ज़रूरतें, कार्य और भाव अपने समाज जैसे हों; जहाँ चिढ़ना-चिढ़ाना, रूठना-मनाना, शेखी बघारना, बात-बात में गाना हो; जहाँ किरदार का चलते-चलते घिस जाना, बड़े का छोटे से हार जाना किसीको अचम्भा न लगे; जहाँ सरकंडों की गाड़ी को चूहे खींचते हों; जहाँ चिड़ा-चिड़िया दाल चावल के एक-एक दाने से खिचडी बना लें; जहाँ कूए के अन्दर परियाँ मिलें, कान तहखाना बन जाए – ऐसी दुनिया की सैर करते हुए कौन बाहर आना चाहेगा !

प्रस्तुत पुस्तक की कुछ कहानियों को मैंने अलग-अलग विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं की कक्षायी प्रक्रिया के दौरान सुनाया और कुछ दिनों बच्चों की बातचीत में उसका प्रभाव भी देखा ! क्योंकि मैं इन कहानियों का स्वयं वाचक भी रहा हूँ तो कह सकता हूँ कि ‘एक थी चिड़िया’, ‘मजनूमियाँ’ जैसी विचित्र कल्पनाओं वाली कहानियाँ आज भी असरकारक हैं ! इन कहानियों में बच्चों के हिसाब से बदलने का एक अजब गुण भी है जो कहानीकार, कथावाचक की गुणग्राहकता पर निर्भर है !

पुस्तक की कहानियाँ जबरन सीख की पैरवी नहीं करतीं, स्वाभाविक सीख देती हैं ! विचित्र कल्पनाओं से स्वस्थ मनोरंजन करती हैं ! बालोचित भाव भंगिमाओं को कहानियों के किरदारों में पाकर पढ़ते हुए गुदगुदाती भी हैं !

दो साल पहले वंडररूम बाल पुस्तकालय के कहानी-कुनबा सत्रों में ‘चना न चब्बूँ क्या ?’ और ‘जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं’ कहानियों ने बच्चों की जुबान पर इनके गीति वाक्यों की धुन लगा दी थी ! आज जब फिर से ये कहानियाँ सामने आईं तो अपनी सबसे करीबी गीतकहानी परीक्षणशाला ‘बेटी’ पर दो कहानियों को आजमाया ! कहानी और वाचन दोनों का उसको आनंद लेता देख भूमिका लिखना सहज हुआ !

लेखिका ‘साधना वैद’ ने जो कहानियाँ अपनी दादी-नानी से सुनीं और बरसों तक मानस में जिन्हें संजो कर रखा, समय-समय पर उन्हीं मानस मोतियों को नाती-पोतों को दिखाते हुए आज पुस्तकाकार रूप में वो सुधि पाठकों के बीच लेकर आई हैं ! मेरा विश्वास है कि इन बीस कहानियों की सरिता का श्रुति परम्परा से पाठ्य परम्परा के सागर में आना सभीको रास आयेगा !

प्रतुल वशिष्ठ
बाल साहित्यकार
(वंडररूम बाल पुस्तकालय,
राजीव गाँधी फाउन्डेशन)
दिल्ली     

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