Wednesday, April 17, 2019

संवेदना की नम धरा पर – साधना वैद : समीर लाल ’समीर’ की नज़र में

(अमेरीका से प्रकाशित मासिक पत्रिका सेतु के मार्च अंक में)
साधना वैद जी से परिचय हुए १० साल से उपर का समय गुजरा. परिचय का माध्यम उनका ब्लॉग ’सुधीनामा’ रहा. उनकी लेखनी शुरु से प्रभावित करती आई. जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से और गहराई से विचार रखना और वो भी कविता और गध्य दोनों के ही के माध्यम से, यही साधना जी की खासियत है.
हाल ही में साधना जी द्वारा भेजा हुआ उनका कविता संग्रह ’संवेदना की नम धरा पर’ प्राप्त हुआ. १५१ कविताओं का गुलदस्ता, जिसमें चिन्तन उनके मानस की गंभीरता और सजगता को उजागर करता है और अनुभूतियाँ उनके कोमल हृदय को जो कभी माँ का, तो कभी नारी का तो कभी स्वच्छंद सा विचरता मन एक अलग सा संसार निर्मित करता है.
१५१ कविताओं में हर एक कविता का एक अलग अंदाज है. एक अलग आयाम है. कहीं भी दोहराव नहीं प्रतीत होता, यह मुझे इस संग्रह की विशेषता लगी.
एक बार जो पढ़ना शुरु किया तो न जाने कितने ही आयामों को छूते, मनोभावों के सागर में गोता लगाते जब उस पार निकले तो पाया कि पूरी किताब पढ़ चुके हैं और इच्छा अभी भी और पढ़ते चले जाने की बाकी है.
कुछ कविता की बात करें तो एक बलात्कारी की माँ के दिल में उठता अपने ही पुत्र के प्रति घृणा और शर्मिंदगी के भाव को जितनी गहराई से वो ’कुंठित नारी’ शीर्षक की कविता में पेश करती है. वहीं समाज में घूमते इन नर पिशाच बलात्कारियों के रहते घर से बाहर निकलने को विवश पुत्री की आशंकित माँ के हृदय के भय को बखूबी ’पुराने जमाने की माँ’ कविता कलमबद्ध करती हैं.
’मैं शर्मिंदा हूँ’ के कुछ अंश:
आज याद करती हूँ
तो बड़ा क्षोब होता है कि
तुझे पाने के लिए मैंने
कितने दान पुणय किये थे
कितने मंदिर, मस्जिद
गुरुद्वारों में
भगवान के सामने जाकर
महींनों माथा रगड़ा था!
वो किसलिये?
तुझे जैसे कपूत को
पाने के लिए?
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चार पन्नों में इसी क्षुब्दता के बीच...
यहाँ की अदालत
तेरा फैसला कब करेगी
मैं नहीं जानती
लेकिन अगर तू
मेरे हाथों पड़ गया तो
एक हत्यारिन माँ
होने का पट्टा मेरे माथे पर
ज़रुर चिपक जायेगा!
और उनकी एक अन्य कविता ’पुराने ज़मानें की माँ’ के कुछ अंश:
तुम्हारे लिए
मैं आज भी वही
पुराने ज़माने की माँ हूँ
मेरी बेटी
तुम चाहे मुझसे कितना भी
नाराज़ हो लो
तुम्हारे लिए
मेरी हिदायतें और
पाबंदियाँ आज भी वही रहेंगी
जो सौ साल पहले थीं
क्योंकि हमारा समाज,
हमारे आस – पास के लोग,
औरत के प्रति
उनकी सोच,
उनका नज़रिया
और उनकी मानसिकता
आज भी वही है
जो कदाचित आदिम युग में
हुआ करती थी!
पुनः ५ पन्नों में लिखी गई यह लंबी कविता कितने भीतर तक झकझोरती है, इसका अहसास आप इस कविता से गुजर कर ही कर पायेंगे.
अन्य कवितायें मसलन ’शुभकामना’, ’अब और नहीं’, गृहणी’, ’मैं वचन देती हूँ माँ’, ’मौन’, आदि नारी मन के भाव तो दूसरी तरफ ’दो जिद्दी पत्ते’, ’वसंतागमन’ में प्रकृति का सामिप्य. एक परिपक्व लेखन.
२९४ पन्नों मे १५१ कविताओं का समावेश किये इस संग्रह ’संवेदना की नम धरा पर’ का मेरी पुस्तकों की अलमारी में खास स्थान रहेगा. खास बात यह भी है कि इस कविता संग्रह की प्रकाशक भी साधना जी स्वयं ही है.
मुझे पूरी उम्मीद है कि जब आप इस संग्रह से गुजरेंगे तो आप भी इन्हीं अनुभवों को प्राप्त होंगे और यह संग्रह आपकी पुस्तकों के संग्रह में भी अपना विशिष्ट स्थान बनायेगी.
मेरी अनेक शुभकामनायें साधना जी के साथ हैं और मुझे इन्तजार है उनके अगले संग्रह का. मुझे ज्ञात है कि वो पूर्ण सक्रियता से अपने लेखन को सतत अंजाम देने में पूर्ण उर्जा के साथ लगी हैं.
किताब: ’संवेदना की नम धरा पर’
लेखिका: सधना वैद
प्रकाशक: साधना वैद, ३३/२३, आदर्श नगर, रकाबगंज, आगरा
प्रकाशक का फोन: +९१ ९३१९९१२७९८
लेखिका का ईमेल: sadhna.vaid@gmail.com
मूल्य: रुपया २००
अमेरीका से प्रकाशित सेतु मासिक पत्रिका के मार्च, २०१९ अंक में:

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-04-2019) को "जगह-जगह मतदान" (चर्चा अंक-3310) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !

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  3. आपका हार्दिक धन्यवाद एवं आभार शिवम् जी ! सप्रेम वन्दे !

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