जीवन के मरुथल में
अनवरत कड़ी धूप में
चलते चलते
तपती सलाखों सी
सूर्य रश्मियों को
अपने तन पर सहने की
इतनी
आदत हो गयी है कि
अब मुझे किसी छाया
की
दरकार नहीं रह गयी
है !
वैसे भी सामने फैला
पड़ा है
रेत का अनंत असीम
समंदर
जिसमें दूर दूर तक न
कोई
मरुद्यान दिखाई देता
है
ना ही शीतल छाँह का
कोई ठौर
कि अपने झुलसे तन को
थोड़ी सी तो राहत दे
सकूँ !
तभी तो छाया के लिए
अपने दुखों की चादर को
ही
खूँटों से बाँध कर
एक वितान बना लिया
है मैंने
कि उसके साये में
तनिक
विश्राम कर सकूँ !
शीतल जल पीने के लिए
अपने ही श्रम सीकरों
को
एकत्रित कर सुराही
में भर लिया है
कि तृषा से चटकते
अपने अधरों को
तनिक गीला कर सकूँ !
और अपने अशक्त रुग्ण
पंखों को
अपने ही हाथों से बार
बार सहला कर
एक बार फिर
पुनर्जीवित कर लिया है
कि वे हौसलों की उड़ान
भरने के लिए
एक बार फिर तैयार हो
सकें
क्योंकि मंज़िल अभी
दूर है
और सफ़र बहुत लंबा है
!
साधना वैद
हमेशा की तरह लाज़बाब ,सादर नमस्कार दी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामिनी जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18 -05-2019) को "पिता की छाया" (चर्चा अंक- 3339) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अनीता सैनी
हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आपका अनीता जी !सादर वन्दे!
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना दी जी
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर रचना साधना जी
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनुराधा जी !
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत लाजवाब....हमेशा की तरह...।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी! आभार आपका !
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी!आभार आपका !
ReplyDeleteबहुत खूब 👌
ReplyDeleteबहुत लाजवाब...
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19 -4 -2020 ) को शब्द-सृजन-१७ " मरुस्थल " (चर्चा अंक-3676) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
लाजवाब सृजन
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