(१)
आततायी सूर्य का, यह अनचीन्हा रूप
लज्जित भिक्षुक सा खड़ा, क्षितिज किनारे भूप !
(२)
बाँध धूप की पोटली, काँधे पर धर मौन
क्षुब्ध मना रक्ताभ मुख, चला जा रहा कौन !
(३)
बुन कर दिनकर थक गया, धूप छाँह का जाल
साँझ हुई करघा उठा, घर को चला निढाल !
(४)
करना पड़ता सूर्य को, सदा अहर्निश काम
देश-देश जलता फिरे, बिना किये विश्राम !
(५)
ढूँढ रहा रवि प्रियतमा, गाँव, शहर, वन प्रांत
लौट चला थक हार कर, श्रांत, क्लांत, विभ्रांत !
(६)
आँखमिचौली खेलता, दिनकर दिन भर साथ
परछाईं भी शाम को, चली छुड़ा कर हाथ !
साधना वैद
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteसूरज, धूप और रौशनी से बुने सुंदर दोहे
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार जून 01, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत दोहे..वाह 👌
ReplyDeleteबिंब तो अति मोहक बन पड़े है..अति उत्तम।
हार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना साधना जी...बधाई आपको 🌹
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद उषा जी ! मेरी पोस्ट आपको मेरे ब्लॉग तक खींच लाई मन मुदित हुआ ! स्वागत है ! बहुत-बहुत आभार आपका !
ReplyDeleteढूँढ रहा रवि प्रियतमा, गाँव, शहर, वन प्रांत
ReplyDeleteलौट चला थक हार कर, श्रांत, क्लांत, विभ्रांत
बहुत सुंदर रचना ,सादर नमस्कार दी
बहुत सुंदर दोहें..
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद कामिनी जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद पम्मी जी ! आभार आपका !
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