Thursday, July 11, 2019

घटायें सावन की



घटायें सावन की
सिर धुनती हैं
सिसकती हैं
बिलखती हैं
तरसती हैं
बरसती हैं
रो धो कर
खामोश हो जाती हैं
अपने आँसुओं की नमी से
धरा को सींच जाती हैं
हज़ारों फूल खिला जाती हैं
वातावरण को
महका जाती हैं
और सबके होंठों पर
भीनी सी मुस्कान
बिखेर जाती हैं !

साधना वैद

10 comments:

  1. वाह! सुन्दर मानवीयकारण।

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  2. उत्साहवर्धन के लिए आभार आपका विश्वमोहन जी ! हृदय से धन्यवाद !

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  3. वाह,बहुत सुन्दर

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  4. हार्दिक धन्यवाद केडिया जी !

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  5. हार्दिक आभार विभा जी ! प्रफुल्लित हूँ आपको यहाँ देख कर ! स्वागत है आपका !

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  6. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना सोमवारीय विशेषांक १५ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  7. आपका हृदय से बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! सप्रेम वन्दे !

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  8. ये बूँदें कितना दर्द समेट लाती हैं दुनिया का ... फिर ख़ुशी बन के भ्बिखर जाती हैं ...
    बहुत भावपूर्ण रचना है ...

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  9. हार्दिक धन्यवाद नासवा जी ! आभार आपका !

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