Sunday, February 9, 2020

बंजारा मन




तुम्हारे महल के
सारे ऐशो आराम ठुकरा कर
मेरा बंजारा मन आज भी
उसी तम्बू में अटका हुआ है
जहाँ बरसों पहले
ज़मीन पर बिछी पतली सी दरी पर
मेरे हलके से शॉल को लपेट कर
हम दोनों ने दिसंबर की वो
ठिठुरती रात बिताई थी !
जाने कहाँ से तुम
मिट्टी के कुल्हड़ में गुड़ अदरक की
गरमागरम चाय ले आये थे
और हम दोनों ने
दूर समंदर की लहरों की बेताब
आवाजाही को देखते देखते
घूँट घूँट एक ही कुल्हड़ से देर तक
उस चाय को पिया था !
तेज़ सीली सीली समुद्री हवा से
ढहने को तैयार वो थर्राता हुआ तम्बू
सर्दी से कँपकपाता बदन और
एक दूसरे की आँखों में उमड़ आये
सागर की गहराइयों को नाप 
उसमें डूबने को आतुर हम और तुम !
जाने क्यों लगता है
जैसे सारी कायनात उस रात
उस तम्बू में ठहर गयी थी !
और साथ में ठहर गयी थीं
मेरी सारी चाहतें, सारी खुशियाँ,
सारी हसरतें, सारी ज़िंदगी !
जिसे मैं आज भी तलाश रही हूँ
और उसे ढूँढते ढूँढते
मेरा मन बार बार पहुँच जाता है
समंदर के किनारे लगे उसी तम्बू में
जिसका अब वहाँ दूर दूर तक
कोई अस्तित्व नहीं !


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद 
 



5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 09 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार प्रिय सखी यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !

      Delete
  2. बेहद सुन्दर लेखन । अंत तक बस पढता ही रह गया...
    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।।।।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार पुरुषोत्तम जी ! सादर !

      Delete