Friday, June 12, 2020

अब तो जागो



कब तक तुम
अपने अस्तित्व को
पिता या भाई
पति या पुत्र
के साँचे में ढालने के लिये
काटती छाँटती
और तराशती रहोगी ?
तुम मोम की गुड़िया तो नहीं !

कब तक तुम
तुम्हारे अपने लिये
औरों के द्वारा लिये गए
फैसलों में
अपने मन की अनुगूँज को
सुनने की नाकाम कोशिश
करती रहोगी ?
तुम गूंगी तो नहीं !

कब तक तुम
औरों की आँखों में
अपने अधूरे सपनों की
परछाइयों को
साकार होता देखने की
असफल और व्यर्थ सी
कोशिश करती रहोगी ?
नींदों पर तुम्हारा भी हक है !

कब तक तुम
औरों के जीवन की
कड़वाहट को कम
करने के लिये
स्वयम् को पानी में घोल
शरबत की तरह
प्रस्तुत करती रहोगी ?
क्या तुम्हारे मन की
सारी कड़वाहट धुल चुकी है ?
तुम कोई शिव तो नहीं !

कब तक तुम
औरों के लिये
अपना खुद का वजूद मिटा
स्वयं को उत्सर्जित करती रहोगी ?

तुम बेड़ियों में जकड़ी 
कोई परतंत्र बंदिनी तो नहीं !

क्यों ऐसा है कि
तुम्हारी कोई आवाज़ नहीं?
तुम्हारी कोई राय नहीं ?
तुम्हारा कोई निर्णय नहीं ?
तुम्हारा कोई सम्मान नहीं ?
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं ?
तुम्हारा कोई हमदर्द नहीं ?
तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं ?

अब तो जागो
तुम कोई बेजान गुडिया नहीं
जीती जागती हाड़ माँस की
ईश्वर की बनायी हुई
तुम भी एक रचना हो
इस जीवन को जीने का
तुम्हें भी पूरा हक है !
उसे ढोने की जगह
सच्चे अर्थों में जियो !

अब तो जागो 
तुम भी स्वतंत्र हो 
औरों की ही तरह खुद को 
तलाशने के लिये 
 सँवारने के लिये 
निखारने के लिये
स्थापित करने के लिये !

अब तो जागो
नयी सुबह तुम्हें अपने
आगोश में समेटने के लिये
बाँहे फैलाए खड़ी है !
दैहिक आँखों के साथ-साथ
अपने मन की आँखें भी खोलो !
तुम्हें दिखाई देगा कि
जीवन कितना सुन्दर है !


साधना वैद

14 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-0६-२०२०) को 'पत्थरों का स्रोत'(चर्चा अंक-३७३१) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार अनीता जी ! सप्रेम वन्दे !

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  2. जो जागना चाहे उसे जगाया जा सकता है न दीदी जिसने जो मिला वही नियति का प्रसाद मान लिया हो उसे जगाना तो नामुमकिन है शायद।
    ओजपूर्ण सराहनीय सृजन।

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    1. यही तो विडम्बना है श्वेता जी ! फिर भी जगाने की अलख तो हमें जलाये रखनी ही होगी ! हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका !

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  3. बहुत शानदार रचना |

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    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी !

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  5. बहुत ही सुंदर रचना साधना जी ,ऐसा सोचते सभी है परंतु करना आसान नहीं ,अपने को बनाने में बहुत कुछ बिगड़ जाता है ,जिस पर गुजरती है वही जानता है ,
    जलते हैं अरमान मेरा दिल रोता है
    किस्मत का दस्तूर निराला होता है ,
    आई ऐसी मौज की साहिल डूब गया
    वरना अपनी कश्ती कौन डुबोता है ।

    ।कहने -करने में बहुत फर्क होता है ,नमन आपको

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    1. ठीक कह रही हैं ज्योति जी ! मशाल हाथ में लेकर रास्ते रोशन करना हमारा काम है ! अगर दो चार को भी राह मिल जाए तो समझ लेंगे कि लक्ष्य मिल गया ! बाकी लोगों की राह वो रोशन करेंगे ! इस मशाल को जलाने में अक्सर अपनी उंगलियाँ भी कई बार झुलस जाती हैं ! बहुत बहुत आभार आपका !

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  6. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 15 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !

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  7. हार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !

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