Wednesday, March 30, 2011
विडम्बना
सोचा था जब मिलेंगे वो रोयेंगे बहुत हम ,
दरिया में ग़म के उनको डुबोयेंगे फकत हम ,
जिनकी हथेली पोंछती अश्कों को हमारे ,
था उनके आँसुओं को ही दामन हमारा कम !
साधना वैद
Friday, March 25, 2011
झील के किनारे
जादू की उस नगरी में जाना है मुझको,
हर तिलस्म को तोड़ तुम्हें पाना है मुझको,
जो आ जाओ रौशन होंगे पथ अँधियारे,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !
Tuesday, March 22, 2011
हैरान हूँ
सदियों से
मुठ्ठी में बंद
यादों के स्निग्ध,
सुन्दर, सुनहरे मोती
अनायास ही अंगार की तरह
दहक कर
मेरी हथेलियों को
जला क्यों रहे हैं !
अंतरतम की
गहराइयों में दबे
मेरे सुषुप्त ज्वालामुखी में
घनीभूत पीड़ा का लावा
सहसा ही व्याकुल होकर
करवटें क्यों
बदलने लगा है !
वर्षों से संचित
आँसुओं की झील
की दीवारें सहसा
कमज़ोर होकर दरक
कैसे गयी हैं कि
ये आँसू प्रबल वेग के साथ
पलकों की राह
बाहर निकलने को
आतुर हो उठे हैं !
मेरे सारे जतन ,
सारे इंतजाम ,
सारी चेष्टाएं
व्यर्थ हुई जाती हैं
और मैं भावनाओं के
इस ज्वार में
उमड़ते घुमड़ते
लावे के साथ
क्षुद्र तिनके की तरह
नितांत असहाय
और एकाकी
बही जा रही हूँ !
क्या पता था
इस ज्वालामुखी को
इतने अंतराल के बाद
इस तरह से
फटना था और
मेरे संयम,
मेरी साधना,
मेरी तपस्या को
यूँ विफल करना था !
साधना वैद
Thursday, March 17, 2011
सुखद खबर – अब देश गरीब नहीं रहा !
पिछले पूरे सप्ताह दुःख भरी खबरें ही देखने और सुनने को मिलीं | क्रिकेट मैचों में भारत का प्रदर्शन साधारण रहा, नये-नये घोटालों की खबरें आती रहीं, लीबिया में जन आंदोलन हारता हुआ दिखा, देश में जगह-जगह ‘रास्ता रोको’ ‘रेल रोको’ आन्दोलनों के समाचार चिंताओं को बढ़ाते रहे, जापान के भूकंप और फिर सुनामी और अटॉमिक रेडीएशन की चिंता भरी खबरें और साथ में लगातार चलने वाले बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह हमारे महान नेताओं के कारनामों की दिल दुखाने वाली खबरें व्यथित करती रहीं पर अचानक आज एन डी टी वी इंडिया की न्यूज़ पर एक ऐसी खबर सुनी कि दिल बाग-बाग हो गया !
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गरीबी की परिभाषा देकर अचानक सारे दुःख और चिंताएं दूर कर दीं ! सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि शहर में १७ रुपये प्रतिदिन या उससे भी कम कमाने वाले और गाँवों में १२ रुपये प्रतिदिन या उससे कम कमाने वाले लोग ही इस देश में गरीब हैं ! दिल खुशियों से भर गया ! सब चिंताएं दूर हो गयीं ! अचानक महसूस होने लगा कि हमारे देश में गरीबी तो लगभग खत्म ही हो चुकी है ! सरकार की मुहिम ‘गरीबी हटाओ देश बचाओ’ कामयाब हो चुकी है ! एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को सत्ता में लाने के सुखद नतीजे तो अब सामने आये हैं ! हमारे घर की बर्तन माँजने वाली और झाडू पोंछा करने वाली बाई, जिसे हम ६०० रुपये माहवार देते हैं, और जो अन्य कई घरों में काम करके लगभग ३००० रूपए कमा ही लेती है, उसे हम व्यर्थ ही गरीब समझते रहे, हमारा ड्राइवर जिसे हम ५००० रुपये प्रतिमाह देते हैं और जो पुराने कपड़ों को भी माँग कर शान से पहन लेता है, गरीब कहाँ है ! श्रीमान जी का ऑफिस बॉय जो पिछले दो साल से हम सबसे चन्दा माँग कर अपनी पत्नी का इलाज करवा रहा था और फिर भी उसे बचा नहीं पाया वह भी कहाँ गरीब है उसकी तनख्वाह भी तो ३५०० रुपये प्रतिमाह है और उसका बेटा भी १०० रुपये की दिहाड़ी पर प्रतिदिन काम करता है ! आसपास की कई कोठियों में बेलदारी का काम करने वाला माणिक नाम का मजदूर भी तो अभी तक १०० रुपये प्रतिदिन कमाता था और अब तो तरक्की के साथ उसकी मजदूरी १२५ रुपये प्रतिदिन हो गयी है ! पर्क के रूप में जिसे रोज गरम चाय, पुराने जूते, कपडे, त्यौहार पर इनाम और मिठाई अलग से मिलती हैं वह भी गरीब कहाँ रहा ! यहाँ तक कि हमारी सहेली बीनाजी जो गरीब बच्चों के लिये ‘प्रयास’ नाम की संस्था चला रही हैं और उनके विकास के लिये काम करती है, उसमें आने वाले बच्चे भी तो कचरा बीन कर प्रतिदिन कम से कम ५० से ६० रुपये रोज कमा ही लेते हैं वह भी अब गरीब कहाँ रहे !
सरकारी आँकड़ों के अनुसार १७ रुपये और १२ रुपये तक की कमाई वाले लोग देश में केवल ३७% ही हैं ! बाकी ६३% तो गरीबी से मुक्ति पा चुके हैं ! आइये हम सब इस महान उपलब्धि का जश्न मनाएं और एक दूसरे को बधाई दें ! और लानत भेजें उन निराशावादी लोगों को जो कहते हैं कि देश के केवल १०% लोग ही अमीर हैं बाकी ९०% लोग आज भी गरीबी की चक्की में पिस रहे हैं ! क्या वास्तव में हमें अपना नज़रिया नहीं बदल लेना चाहिये ? घिसे पिटे कपड़े पहने, कंधे झुकाये, टूटी साइकिल घसीटने वाले वाले, दुखी और परेशान से दिखने वाले जिन लोगों को हम गरीब समझते रहे वे गरीब थोड़े ही हैं ! यह तो सिर्फ हमारी गलत फहमी थी ! अब तो अपने दिमाग पर जोर डाल कर सिर्फ उन ३७% लोगों के बारे में चिंता कीजिये जो वास्तव में १७ रुपये और १२ रुपये तक ही प्रतिदिन कमा पाते हैं वे बेचारे क्या करते होंगे ? क्या उनका जीवित रह पाना एक चमत्कार नहीं है ?
क्या ये सारी बातें आपको कुछ अजीब लग रही हैं ? विश्वास नहीं हो रहा है ? या ये तथ्य हजम नहीं हो पा रहे हैं ? मेरी सलाह मानिये ! अपने दिमाग पर जोर मत डालिये ! हमारे नेता और सरकारी अफसर बहुत मेहनती हैं उनकी कद्र कीजिये, उनकी बातें सुनिये और मानिये, तथा सिर्फ और सिर्फ सरकारी चश्मा लगाइए ! आपके सारे भ्रम दूर हो जायेंगे !
साधना वैद
Friday, March 11, 2011
खामोशी
कितनी मुखर हो उठती है
मैंने उस कोलाहल को सुना है !
खामोशी की मार कभी कभी
कितनी मारक होती है
मैंने उसके वारों को झेला है !
खामोशी की आँच कभी कभी
कितनी विकराल होती है
मैंने उस ज्वाला में
कई घरों को जलते देखा है !
खामोशी के आँसू कभी कभी
कितने वेगवान हो उठते हैं
मैंने उन आँसुओं की
प्रगल्भ बाढ़ में
ना जाने कितनी
सुन्दर जिंदगियों को
विवश, बेसहारा बहते देखा है !
खामोशी का अहसास कभी कभी
कितना घुटन भरा होता है
मैंने उस भयावह
अनुभूति को खुद पर झेला है !
खामोशी इस तरह खौफनाक
भी हो सकती है
इसका इल्म कहाँ था मुझे !
मुझे इससे डर लगता है
और मैं इस डर की क़ैद से
बाहर निकलना चाहती हूँ ,
कोई अब तो इस खामोशी को तोड़े !
साधना वैद
Wednesday, March 9, 2011
मसीहा
मसीहा बन के रहा हूँ
सबकी समस्याओं के समाधान
मैंने सुझाये हैं ,
तुम्हारे दुखों की आँच
पता नहीं कैसे
मुझ तक पहुँच ही नहीं पाई
और क्या करूँ
मैं भी तो देख नहीं पाया !
और यह तुम्हारे जख्मों से इतना
लहू क्यों बह रहा है ?
मैं तो सदा सबके लिये
मरहम लिये खड़ा रहा हूँ
बस तुम्हारे ज़ख्म ही
बिना दवा के रह गये
क्योंकि शायद कोई और
तुमसे भी अधिक ज़रूरतमंद था
जिसे मेरी दवा की ज़रूरत थी !
मैंने तो सारे परिवेश को
महकाने के लिये
सुगन्धित फूलों का
बागीचा लगाया था
तुम्हारे दामन में इतने काँटे
कहाँ से आ गये
और कौन तुम्हें दे गया
मुझे कैसे पता चलता
मैं तो बाकी सबके लिये
गुलदस्ते बनाने में ही व्यस्त रहा !
तुम इस सबके सोग में
यूँ ही डूबे रहो
यह भी मुझे कहाँ मंज़ूर है ,
मुझे अपने दुखों का
उत्तरदायी मानो
यह भी कहाँ का न्याय है ,
जब मैंने कुछ देखा ही नहीं
तो मैं गलत कैसे हुआ ,
इस सबके लिये
तुम और सिर्फ तुम ही
ज़िम्मेदार हो
क्योंकि तुम्हारी सोच ही गलत है
और तुम्हें ज़िंदगी को
जीना आता ही नहीं !
मैं तो बाकी सबके जीवन को
वृहद अर्थों और सन्दर्भों में
सहेजता सँवारता रहा !
तुम्हारी तकलीफों के पीछे
मैं नहीं तुम्हारी अपनी
रुग्ण मानसिकता है !
हो सके तो तुम खुद ही इसे
बदल डालो !
साधना वैद
Sunday, March 6, 2011
खिडकी
स्वच्छंद उड़ने वाली,
ताज़ी हवा में जीने वाली
और चाँद सूरज के
निर्मल, प्रखर और
प्राणदायी प्रकाश को भरपूर
आत्मसात करने वाली
उन्मुक्त चिड़िया थी
तुमने ही तो उसे
अन्धकार के गहरे
गह्वर में ढकेल
एक के बाद एक
सारी खिड़कियाँ
बंद कर दी थीं !
यहाँ तक कि
रोशनी के लिये
एक नन्हा सा सूराख
भी नहीं छोड़ा था !
अब इस अँधेरे में ही
क़ैद रहने की उसे
आदत सी हो गयी है !
अब ज़रा सी रोशनी
से उसकी आँखें
चुँधिया जाती हैं,
ज़रा सी ताज़ी हवा से
उसका दम घुटने लगता है !
खरोंच कर नयी खिडकी
बनाने के लिये उसके
नाखून बूढ़े हो चुके हैं
और नज़र भी अब
कमज़ोर हो गयी है !
क्या पता सदियों से
अँधेरे में रहने की आदी
उसकी आत्मा अब
ताज़ी हवा और
प्रखर प्रकाश का यह सदमा
झेल भी पायेगी या नहीं !
इसलिए बेहतर यही होगा
कि अब तुम
उसके लिये कोई खिडकी
मत खोलो,
उसे अब अपने गहन गह्वर में
किसी भी तरह के
प्रकाश और हवा के बिना
क़ैद रहने दो
क्योंकि अब उसे ऐसे ही
जीने की आदत
हो गयी है और
यही उसे सुहाता है !
साधना वैद