अपने
मन की बंद खिड़की की
वर्षों
बाद झाड़ पोंछ कर
मैंने
साँकल खोली है !
डरती
थी सालों से बंद
मेरे
मन के उस कोने में
संगृहित
सब कुछ
वक्त
की आँधियों के चलते
धूल
धूसरित, अस्त व्यस्त,
जीर्ण
जर्जर और
नष्ट
हो गया होगा !
लेकिन
हर्षित हूँ कि
अतीत
में बिताये
वो
यादगार पल
मेरी
स्मृति मंजूषा में
आज
भी वैसे ही
बेशकीमती
हीरों की तरह
जगमगा
रहे हैं और
उनकी
चमक आज भी
मेरी
आँखों को
चौंधियाने
में
उसी
तरह सक्षम है !
सोचती
हूँ इस
हृदय
गवाक्ष को
खुला
ही रखूँ !
वर्तमान
के अँधेरे
उन हीरों की चमक से
शायद कुछ
उन हीरों की चमक से
शायद कुछ
कम
हो जायें !
साधना
वैद
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