कल
रात फिर
मेरे
सिरहाने
तकिये
के नीचे दबे
खस्ता
जर्जर हाल
वर्षों
पुराने चंद खत
मेरी
उँगलियों की पोरों से
टकरा
गये ,
और
ऐसा लगा
उस
स्पर्श ने
निस्पंद
निर्जीव पड़ी
मेरी
चेतना में सहसा ही
जैसे
प्राण फूँक दिये !
खिड़की
से आती चाँद की
मद्धिम
रोशनी में
खत
का धुँधला पड़ा
हर
शब्द ध्रुव तारे की तरह
जगमगा
रहा था
और
मेरा तिमिरमय संसार
एक
बार फिर तुम्हारे
प्यार
की स्निग्ध रोशनी से
झिलमिल-झिलमिल
झिलमिला
रहा था !
मेरे
मन में एक सुकून था ,
एक
भरोसा था
और
था संसार की सबसे
अलभ्य
खुशी को पा लेने का
एक
दुर्लभ अहसास
जो
उन खतों के ज़रिये
मुझे
मिला था !
मेरी
दुनिया पूरी तरह से
बदल
गयी थी
उसमें
दुःख, अवसाद और
अंधेरों
के लिए
कोई
जगह नहीं थी
शायद
इसी रूप में जो
सुख
मैंने पाया था वही
मेरे
प्यार का सिला था !
लेकिन
सुबह के सूरज की
पहली
किरण के साथ ही
ये
सारे अहसास
अचानक
ही जाने कहाँ
तिरोहित
हो गये ,
और
मेरी चेतना को
उसी
तरह फिर से
निस्पंद
और निर्जीव कर
पंगु
बना कर छोड़ गये !
एक
बार मैं फिर
मन
के उन्हीं भयावह
अंधेरों
में कैद हो गयी ,
और
अपने ही बुने जाल की
पेचीदा
गुत्थियों में
उलझ
कर रह गयी !
जानते
हो
ऐसा
क्यूँ हुआ ?
ऐसा
इसलिये हुआ
क्योंकि
वो सारे खत
तुम्हारी
ओर से
मैंने
ही तो लिखे हैं
खुद
को !
रात
के नीम अँधेरे में
पागल
चाँद को तो बहलाना
आसान
है लेकिन
सूरज
तो फिर सूरज ही है !
वह
तो सब कुछ जान जाता है
दिन
के प्रखर प्रकाश में
उसे
कैसे बहलाऊँ !
साधना
वैद
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