तेरी अभ्यर्थना में मैं
इस तरह झुका हुआ हूँ
मेरे भुवन भास्कर !
इस नश्वर जीवन की
एक और संध्या घिर आई
है !
बड़े-बड़े डग भरता अन्धकार
अपना अखण्ड
साम्राज्य
स्थापित करने
तीव्र गति से बढ़ता
चला आ रहा है !
मन को सहलाता ,
आँखों को ठण्डक पहुँचाता
यह मनोरम दृश्य
आहिस्ता-आहिस्ता
घने तिमिर के
प्रगाढ़ आलिंगन में
अदृश्य होता जा रहा
है !
बस अब कुछ पलों के
बाद
शेष रह जाएगा
शाश्वत अवसान सा
एक अभेद्द्य सन्नाटा
जिसकी सुदृढ़ दीवारों
में
चेतना की सेंध लगाना
नितांत असंभव हो
जाता है !
प्रखर प्रकाश के
मेरे महापुंज
अब तो उदित हो जाओ !
छा जाओ मेरे मनाकाश
पर
आलोकित कर दो
मन का कोना कोना
वरना भय है कि
हवाओं के साज़ पर
हर पल हर क्षण
मद्धम होती जा रही
और शनैः-शनैः
चिर मौन में विलीन
होती जा रही इन चंद
गिनीचुनी धड़कनों की
क्षीण सी प्रतिध्वनि
को
सुन पाने की कवायद
में ही
मेरे जीवन की यह
संध्या भी
कहीं बीत न जाए
और उसके साथ ही
तुम्हारे दर्शन की
साध भी
कहीं मेरे अंतर में
ही
घुट कर न रह जाए !
मेरे देवाधिदेव
मेरी बस इतनी सी
अभिलाषा है कि
तुम्हारे स्निग्ध
कोमल
दिव्य आलोक के
कल-कल छल-छल
अजस्त्र प्रवाह में
शिखर से मूल तक
सराबोर हो
मैं अपने सहस्त्रों
करपर्णों से
तुम्हें अंतिम बार
कोटिश: प्रणाम कर
सकूँ
और अपने अवरुद्ध कंठ
की
मर्माहत सी मर्मर
ध्वनि में
अंतिम बार तुम्हारा
स्तुति गान कर
तुम्हें सुना सकूँ
एवं
अपने इस जन्म को
सफल कर सकूँ !
मेरे जीवन के
ज्योतिस्तंभ
तुम्हारे पुनरागमन
की
कितनी उत्कंठा के
साथ
मुझे प्रतीक्षा है
इतना तो तुम
जानते हो ना ?
साधना वैद
No comments:
Post a Comment