Saturday, November 29, 2014

शह और मात


सोचा था कभी याद ना करेंगे तुम्हें
लेकिन हर पल सिर्फ तुम्हारी
चुभती यादों के दंशों को झेलते ही रहे ,
सोचा था तिल-तिल कर मिटा देंगे खुद को
लेकिन हर पल समझौते की सुई से
बस अपने गहरे ज़ख्मों को सिलते ही रहे ,
लाख तुम्हें भुलाना चाहा हमने मगर
पल भर को भी भुला ही ना सके तुमको
लाख मिटाना चाहा खुद को हमने मगर
पल भर को भी मिटा ही ना सके खुद को
ज़िंदगी की चौसर के हर खाने पर हम
जाने क्यों ज़रूरत बेज़रूरत चलते ही रहे
तुम्हारी बिछाई इस बिसात पर जाने क्यों  
यह खेल शह और मात का खेलते ही रहे !

साधना वैद

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