कसक
कैसा लगता है
जब गहन भावना से परिपूर्ण
सुदृढ़ नींव वाले प्रेम के अंतर महल को
सागर का एक छोटा सा ज्वार का रेला
पल भर में बहा ले जाता है ।
क़ैसा लगता है
जब अनन्य श्रद्धा और भक्ति से
किसी मूरत के चरणों में झुका शीश
विनयपूर्ण वन्दना के बाद जब ऊपर उठता है
तो सामने न वे चरण होते हैं और ना ही वह मूरत ।
क़ैसा लगता है
जब शीतल छाया के लिये रोपा हुआ पौधा
खजूर की तरह ऊँचा निकल जाता है
जिससे छाया तो नहीं ही मिलती उसका खुरदरा स्पर्श
तन मन को छील कर घायल और कर जाता है ।
कैसा लगता है
जब पत्तों पर संचित ओस की बूंदों की
अनमोल निधि हवा के क्षणिक झोंके से
पल भर में नीचे गिर धरा में विलीन हो जाती है
और सारे पत्तों को एकदम से रीता कर जाती है ।
साधना वैद
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