उगते सूरज को सभी, झुक-झुक करें सलाम
जीवन संध्या में हुआ, यश का भी अवसान !
बहती जलधारा कभी, चढ़ती नहीं पहाड़
एक चना अदना कहीं, नहीं फोड़ता भाड़ !
चूर हुआ शीशा कभी, जुड़ता नहीं जनाब
मोती गिरता आँख से, खोकर अपनी आब !
अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर खुद को देय
जनता को भूखा रखें, 'नेता' का यह ध्येय !
'राज' करेंगे जो दिया, 'राजनीति' का नाम
'दासनीति' कहिये इसे, और करायें काम !
नेता सारे एक से, किसकी खोलें पोल
अपनी ढकने के लिये, बजा रहे हैं ढोल !
बाप न मारी मेंढकी, बेटा तीरंदाज़
नेताजी के पूत का, नया-नया अंदाज़ !
वाणी में विद्रूप हो, शब्दों में उपहास
घायल कर दे बात जो, यह कैसा परिहास !
भर जाते हैं ज़ख्म वो, देती जो तलवार
रहते आजीवन हरे, व्यंगबाण के वार !
जीवन जीने के लिये, ले लें यह संकल्प
सच्ची मिहनत का यहाँ, कोई नहीं विकल्प !
साधना वैद
No comments:
Post a Comment