(१)
आततायी सूर्य का, यह
अनचीन्हा रूप
लज्जित भिक्षुक सा
खड़ा, क्षितिज किनारे भूप !
(२)
बाँध धूप की पोटली,
काँधे पर धर मौन
क्षुब्ध मना रक्ताभ
मुख, चला जा रहा कौन !
(३)
बुन कर दिनकर थक
गया, धूप छाँह का जाल
साँझ हुई करघा उठा,
घर को चला निढाल !
(४)
करना पड़ता सूर्य को,
सदा अहर्निश काम
देश-देश जलता फिरे,
बिना किये विश्राम !
(५)
ढूँढ रहा रवि
प्रियतमा, गाँव, शहर, वन प्रांत
लौट चला थक हार कर,
श्रांत, क्लांत, विभ्रांत !
(६)
आँखमिचौली खेलता,
दिनकर दिन भर साथ
परछाईं भी शाम को,
चली छुड़ा कर हाथ !
साधना वैद
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