Thursday, September 29, 2016

दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती




दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती

झटक कर दामन खुशी रुखसत हुई

मोतियों की थी हमें चाहत बड़ी

आँसुओं की बाढ़ में बरकत हुई !



रंजो ग़म का था वो सौदागर बड़ा

भर के हाथों दे रहा जो पास था

हमने भी फैला के आँचल भर लिया

बरजने को कोई ना हरकत हुई !



बाँटने में वो बड़ा फैयाज़ था

नेमतों से कब हमें एतराज़ था

दर्द देने के बहाने ही सही 

चल के घर आने की तो फुर्सत हुई !



हमको उसकी बेरुखी का पास था

चोट देने का ग़ज़ब अंदाज़ था

जायज़ा लेना था हाले दर्द का

ज़ख्म देने को नये शिरकत हुई !



हम न उससे फेर कर मुँह जायेंगे

हर सितम उसका उठाते जायेंगे

हो न वो मायूस अपनी चाल में

इसलिए बस दर्द से उल्फत हुई !



साधना वैद






            

Sunday, September 25, 2016

पलायन का दर्द



छुड़ाए गाँव
नौकरी की तलाश
चलो शहर

पेट की भूख
उड़ा कर ले चली
घर से दूर

छूटे माँ बाप
छूटा घर आँगन
रिक्त हृदय

बड़ा शहर
अजनबी चेहरे
डरा ग्रामीण

आये शहर
बना लिया है घर
फुटपाथ पे

ज़मीं का फर्श
छत है आसमां की
पर्दा हवा का

अमीर लोग
शोषण ग़रीब का
भोला गंवई

न पाया कुछ
न खोने को है कुछ
काहे का डर

खाली है जेब
खाली दिल दिमाग
खाली मकान

बोझ उठाते
मेहनत करते
दिन बीतते 

 रात दिन की
  जी तोड़ मेहनत
 थोड़ा सा दाम
  
जीना हराम 
 ज़िल्लत की ज़िंदगी

जैसे गुलाम

याद आता है
घर खेत पोखर
अपना गाँव

छोटा सा गाँव
गिनी चुनी गलियाँ
अपने लोग

पराया देश
अनजान सड़कें
बेगाने लोग

तेरा आसरा
लगा दे नैया पार
कृपानिधान 



साधना वैद

Thursday, September 22, 2016

सरिता हूँ मैं



जीवन मेरा
समर्पित सिंधु को
सरिता हूँ मैं

पिघली बर्फ
पर्वत से उतरी
प्रवाहमयी

उथली धारा
कल-कल बहती
नीचे पहुँची

चंचल धारा
झर-झर गिरती
झरना बनी

बन गयी मैं
मिल सखियों संग
गहरी नदी

बहती चली
जंगल मैदानों में
बंधन मुक्त

बहती रही
अथक अहर्निश
युगों युगों से

एक ही साध
तदाकार हो जाऊँ
पिय अंग मैं

मीठा या खारा
सागर का जल ही
मेरा अभीष्ट

१०
पर्याय हम
सिंधु और सरिता
नि:स्वार्थ प्रेम 

११
मिसाल बनूँ
समर्पण के हित
याद की जाऊँ



साधना वैद