कब तक
तुम उसे
इसी तरह छलते रहोगे !
कभी
प्यार जता के,
कभी
अधिकार जता के,
कभी
कातर होकर याचना करके,
तो कभी
बाहुबल से
अपना शौर्य और पराक्रम दिखा के,
कभी छल
बल कौशल से
उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाके,
तो कभी
सामाजिक मर्यादाओं की
दुहाई देकर उसकी
कोमलतम
भावनाओं का सौदा करके ?
हे धर्मराज
युधिष्ठिर
भरी सभा
में धन संपत्ति की तरह
अपनी पत्नी द्रौपदी को
चौसर की
बाजी में हार कर
और दुशासन के हाथों
उसके चीरहरण
का लज्जाजनक दृश्य देख
तुम्हें
अपने पौरुष पर
बड़ा अभिमान हुआ होगा ना ?
छि:, लानत है तुम पर
पाँच-पाँच
पति मिल कर भी
एक
पत्नी के सतीत्व की
रक्षा न कर सके !
क्यों
युधिष्ठिर
शर्म तो नहीं आई थी न तुम्हें ?
पत्नी
की लाज हरी गयी तो क्या हुआ
तुम तो
आज भी
‘धर्मराज’ ही कहलाते हो
क्या
यही था तुम्हारा ‘धर्म’ ?
भरी सभा में अपमानित होती
द्रौपदी के नेत्रों से बरसती अश्रुधार
और तानों, उलाहनों उपालम्भों के
अग्नेयास्त्र भी क्यों तुम्हारे
मृतप्राय आत्माभिमान को
जगा नहीं सके ?
बोलो युधिष्ठिर
है कोई उत्तर तुम्हारे पास ?
आखिर कब
तक तुम नारी के कंधे पर
बन्दूक
रख कर अपने निशाने लगाते रहोगे ?
अब तो
बस करो !
कब तलक ‘देवी’ बनाओगे उसे
'मानवी'
भी ना समझ पाये जिसे !
साधना
वैद
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