Saturday, March 31, 2018

बेस्वाद ज़िंदगी



कैसी विचित्र सी मनोदशा है यह ! 
भूलती जा रही हूँ सब कुछ इन दिनों ! 
इतने वर्षों का सतत अभ्यास 
अनगिनत सुबहों शामों का 
अनवरत श्रम 
सब जैसे निष्फल हुआ जाता है 
अब अपनी ही बनाई रसोई में 
कोई स्वाद नहीं रहा 
मुँह में निवाला देते ही 
खाने वालों का मुँह 
किसकिसा जाता है !
कितने भी जतन से मिष्ठान्न बनाऊँ 
जाने कैसा कसैलापन 
जिह्वा पर आकर 
ठहर जाता है ! 
नहीं जानती मैं ही सब कुछ 
भूल चुकी हूँ या 
खाद्य सामग्री मिलावटी है 
या फिर पहले बड़े सराह-सराह कर 
खाने वालों के मुँह का 
ज़ायका बदल गया है ! 
पकवानों की थाली की तरह ही 
ज़िंदगी भी अब उतनी ही 
बेस्वाद और फीकी हो गयी है जैसे ! 
बिलकुल अरुचिकर, नीरस, निरानंद !


साधना वैद

चित्र - गूगल से साभार

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