Wednesday, April 11, 2018

डर


डर ?

कैसा डर ?
किससे डर ?
किस बात का डर ?
डरने की वजह ?
और फिर डरना ही क्यूँ ?
क्या खोने का डर है ?

परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने का डर है ?
मेहनत, लगन और एकाग्र चित्त से
जो अध्ययन किया हो तो
असफल हो जाने का डर कैसा ?  
ज्ञान और विवेक ऐसी पूँजी हैं
जो कितनी भी खर्च करो और
कितनी भी बाँटो कभी कम नहीं होती
ना इसे कोई चोर लूट सकता है
ना समय के साथ इसका क्षय होता है ! 
फिर इसके लुट जाने का कैसा डर ?

फिर क्या धन दौलत, ज़मीन जायदाद,
गहना गुरिया, रुपया पैसा
लुट जाने का डर मन में व्याप्त है ?
ये सब तो वैसे भी हाथ का मैल है
चंचल चित्त ठगिनी माया से कैसा मोह ?
इसकी तो प्रवृत्ति ही यही होती है  
आज हमारे पास है तो कल नहीं
और वो कहते हैं ना ---
सब ठाठ धरा रह जायेगा  
जब लाद चलेगा बंजारा !
फिर इनके छुट जाने का कैसा डर ?

तो क्या रिश्तों के टूट जाने का डर है ?
जहाँ रिश्तों की जड़ें मज़बूत होती हैं
कैसे भी आँधी, तूफ़ान, झंझा, चक्रवात
उसे तिल भर भी डिगा नहीं सकते लेकिन
जिनकी जड़ें ही गहरी न हो सकीं
उन्हें तो एक न एक दिन
उखड़ना होता ही है !
जिन जड़ों को सींचा ही नहीं
साफ़ है कि ना तो तुम्हारे लिए
उनका कोई मोल है ना ही महत्त्व
फिर उनके टूटने उखड़ने की कैसी चिंता
जैसा बोओगे वही तो काटोगे ना !
या यहाँ भी लालच है मन में ?
निवेश धेला कौड़ी का नहीं लेकिन
लाभ पूरा का पूरा चाहिए !

तो क्या फिर अपनों के खो जाने का डर ?
सृष्टि का नियम है कि जो आता है
एक न एक दिन उसका जाना भी
अवश्यम्भावी ही होता है
तो फिर इस बात का डर कैसा ? 
सृष्टि के नियम तो बदलने से रहे
जीवन काल में ही यदि निष्काम भाव से
छोटों को भरपूर प्यार और संरक्षण दिया हो
और बुज़ुर्गों का भरपूर आदर मान 
सेवा सत्कार किया हो तो 
यह अपराध बोध नहीं सालता !

एकदम शुद्ध निर्मल अंत:करण से जिसने
अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया हो
कोई दुश्चिंता, कोई कुंठा, कोई मनोविकार
उसके मन में जड़ें नहीं जमा सकता
और जिसने अपने जीवन में
इतने इम्तहान पहले से ही दे रखे हों  
उसका मन संघर्षों की आँच में तप कर
इस तरह कुंदन सा निर्मल, निर्विकार और
शुद्ध हो जाता है कि फिर उसे
किसी भी परिणाम से डर नहीं लगता !

साधना वैद



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