तुम क्या जानो
आज की नारी हूँ मैं !
रसोई से बैठक तक
घर से स्कूल तक
रामायण से अखबार तक
मैंने कितनी आलोचनाओं का
ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !
करछुल से कलम तक
बुहारी से ब्रश तक
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते
रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक
रोटी पर घूमते बेलन से
कम्प्यूटर के बटन तक
बच्चों के गडूलों से
हवाई जहाज की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का
सामना किया है
तुम क्या जानो !
जच्चा सोहर से जाज़ तक
बन्ना बन्नी से पॉप तक
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को
तोड़ने के लिए
बेजान रस्मों को
उखाड़ फेंकने के लिए
निषेधाज्ञा में तनी
रूढ़ियों की उंगली
मरोड़ने के लिए
मैंने कितने सुलगते
ज्वालामुखियों की
तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर
घिस कर निखर कर
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप
दपदपाती मैं खड़ी हूँ
तुम्हारे सामने
अजेय अपराजेय
मुझे इस रूप में भी
तुम जान लो
पहचान लो !
हूँ सबल मैं
जीत लूँगी निराशा
प्रबल आशा !
साधना वैद
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