Sunday, July 1, 2018

ओ मनमीत


ओ मनमीत
तुम कैसे गा लेते हो
खुशियों के गीत
जब कि मैं जानती हूँ
मन में तुम्हारे अनगिनती
ज़ख्म भरे पड़े हैं
उन दिनों की यादों के
जो कब के गये हैं बीत !
कैसे अपने जख्मों पर
तुम मुस्कुरा लेते हो,
कैसे अपनी पीड़ा को
फूँक मार कर उड़ा लेते हो,
कैसे अपने दुःख को मन में ही दबा
औरों की मुश्किल में उनकी
बैसाखी बन जाते हो ?
सिखाओ ना मुझे भी
अपना फलसफा ज़िंदगी का !
क्योंकि मुझे भी जीना है
बिलकुल तुम्हारी ही तरह,
मुझे भी बनना है बैसाखी
औरों के मुश्किल पलों में
बिलकुल तुम्हारी ही तरह, 
मुझे भी सुकराथ करना है
अपना निरुद्देश्य जीवन
औरों का दुःख बाँट कर
बिलकुल तुम्हारी ही तरह,
मुझे भी बनना है संबल औरों का
उनकी तकलीफें कम करके
बिलकुल तुम्हारी ही तरह !
ओ मनमीत   
बोलो बनोगे ना तुम मेरे गुरू ?
बना लोगे ना तुम मुझे
अपना हमशक्ल 
अपना प्रतिरूप
कि कभी भी किसीको
 तुम्हारी कमी ना अखरे !



साधना वैद   




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