Wednesday, November 21, 2018

मैं खड़ी हूँ आज भी उस मोड़ पर





जिस्म ने तय कर लिये कई फासले ,
उम्र भी है चढ़ चुकी सीढ़ी सभी ,
रूह उस लम्हे में लेकिन क़ैद है ,
जो  बीता था बीता है कभी !

जब हवाएं ठिठकती थीं द्वार पर ,
जब फुहारें भिगोती थीं आत्मा ,
जब सितारे चमकते थे नैन में ,
चाँद सूरज हाथ में थे जब सभी !

एक सूखा पात अटका है वहाँ ,
गुलमोहर के पेड़ की उस शाख पर ,
जो धधकता था सिंदूरी रंग में ,
अस्त होती सूर्य किरणों से कभी !

गीत अब भी गूँजता है अनसुना ,
भावना के पुष्प बिखरे हैं वहाँ ,
नेह की लौ जल रही है आज भी ,
जो बुझी थीना बुझेगी अब कभी !

थीं कभी तुमसे मिलीं सौगात में ,
मोह की उन श्रंखलाओं से बँधी ,
मैं खड़ी हूँ आज भी उस मोड़ पर ,
पलट कर तो देखते तुम भी कभी !

ज़िंदगी के तिक्त सागर में समा ,
प्रेम की सरिता भी खारी हो गयी ,
खो गयी रूमानियत जाने कहाँ ,
कह सके ना चाह कर तुमसे कभी ! 

अब कभी फिर लौट कर आ जाओ तो 
जी उठेंगे पल वो रूमानी सभी 
सो गये थे राह तक थक हार के 
विवश होकर गहन निन्द्रा में कभी !

साधना वैद 


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