यूँ तो ज़िंदगी
इतनी बेनूर, बेरंग और उबाऊ
हो गयी है कि ऐसी कोई वजह
मिलती ही नहीं कि अधरों पर
हल्की सी ही सही
कोई मुस्कान कभी आ जाए लेकिन
जब पुल के नीचे रहने वाली
उस कर्कशा स्त्री को
किसी दूसरी औरत के साथ
झोंटा पकड़ गुत्थमगुत्था होते हुए
और अनर्गल गालियाँ बकते हुए
देखती हूँ और फिर अचानक ही
अपने दुधमुंहें का रोना सुन
सारे झगड़े भूल उसे आँचल से लगा
उसी कर्कशा औरत को
परम वात्सल्य भाव से बच्चे के सर पर
हाथ फेरते हुए देखती हूँ तो
अधरों पर मुस्कान आ ही जाती है !
जब छोटे से किसी किशोर को
घोड़ा बन अपने से भी छोटे
भाई या बहन को पीठ पर सवारी करा
घुमाते हुए और अपनी एकमात्र रोटी से
निवाले तोड़ उन्हें खिलाते हुए देखती हूँ तो
अधरों पर मुस्कान आ ही जाती है !
जब देखती हूँ किसी बाइक सवार को
कि अपने कीमती कपड़ों की परवाह
न करते हुए वह सड़क पर घायल पड़े
किसी छोटे से पिल्ले को असीम करुणा से
गोदी में उठा कर प्यार से सहला रहा है
और धीमे धीमे उसके साथ
मीठी सी आवाज़ में बातें कर
उसका दर्द बाँट रहा है तो
अधरों पर मुस्कान आ ही जाती है
सोचती हूँ बेशक अपना जीवन
कितना भी नीरस और फीका क्यों न हो
आसपास तमाम वजहें
ऐसी मिल ही जाती हैं
जिन्हें देखने मात्र से ही
हमें अभूतपूर्व सुख मिल जाता है
तो ज़रा सोचिये उनका हिस्सा बन कर
हमें कितना पुण्य मिल सकता है !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
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